Loading image... (courtesy-Pinterest )
संत कबीरदास जी के दोहे -
1- संत ना छाडै संतई, कोटिक मिले असंत ।
चन्दन विष व्यापत नहीं, लिपटत रहत भुजंग ।
अर्थ - इस दोहें में कबीरदास जी बताते है की एक सच्चा व्यक्ति वही होता है जो अपनी सज्जनता कभी नहीं छोड़ते है, साहहए वो कितने ही बुरे लोगों के साथ क्यों न रहता हो | ठीक वैसे ही जैसे हज़ारों ज़हरीले सांप चन्दन के पेड़ से लिपटे रहने के बावजूद चन्दन कभी भी विषैला नहीं होता है |
2- साधु ऐसा चाहिए जैसा सूप सुभाय ।
सार–सार को गहि रहै थोथा देई उड़ाय ।
अर्थ - इस दोहें में बड़ी खूबसूरती के साथ कबीरदास जी बताते है की एक व्यक्ति को बिलकुल सूप जैसा होना चाहिए जो की अनाज को तो रख लें और जिन चीज़ों की जरुरत नहीं उसे फटक कर बहार फेक दें |
3-तन को जोगी सब करे, मन को विरला कोय ।
सहजे सब विधि पाइए, जो मन जोगी होए ।
अर्थ - इस दोहें में कबीरदास जी व्यक्ति को झूट और ढोंग से दूर रहने को कहते है, और बताते है की शरीर के साथ - साथ मन को भी साफ़ रखना बहुत जरुरी है | जो इंसान अपने मन को साफ़ रखता है वह हर मायने में सच्चा इंसान बनता है |
4- नहाये धोये क्या हुआ, जो मन मैल न जाए ।
मीन सदा जल में रहे, धोये बास न जाए ।
अर्थ - इस दोहे के ज़रिये कबीरदास जी बहुत गहरी बात कहते हुए बताते है कि अगर किसी व्यक्ति का मन अंदर से मैला हो तो ऐसे नहाने से कोई फायदा नहीं है, सोचिये मछली तो पानी में ही रहती है लेकिन फिर भी उसे कितना भी धोइये उसकी बदबू नहीं जाती है |