यह रही वो कहानी— कई अन्य महान और कुछ उतनी महान नहीं चीजों की तरह, यह सब बंगाल में शुरू हुआ।
कई वर्षों पहले( वास्तव में 1916 में), मजुमदारों के एक अमीर जमींदार परिवार में, हिमालय की तलहटी (वास्तव में पश्चिम बंगाल में सिलीगुड़ी) में एक लड़का पैदा हुआ था। उनके माता-पिता ने उनका नाम चारु रखा।
अपने स्वतंत्रता सेनानी पिता से प्रेरित - चारु अंग्रेजों के लिए बहुत गुस्से के साथ और गरीबों और असंतुष्टों के लिए प्यार के साथ बड़े हुए।
एक युवा व्यक्ति के रूप में, चारु ने पश्चिम बंगाल के बीड़ी श्रमिकों को संगठित करने में मदद की, जिससे उन्हें थोड़ी प्रसिद्धि मिली।
तब एक जमींदार के इस बंगाली बेटे ने बंगाल के दमनकारी जमींदारों के खिलाफ तेभागा आंदोलन में भाग लिया।आंदोलन मुख्य रूप से भूमिहीन टिलर को मुनाफे का 2/3 हिस्सा देने के बारे में था, जो की पहले 1/2 हिस्सा जमींदारों के द्वारा उन्हें दिया जाता था।
आंदोलन सफल रहा और चारु को थोड़ी और अधिक प्रसिद्धि अर्जित हुई। इस सफलता ने उन्हें एक ऐसे व्यक्ति के रूप में प्रसिद्ध किया जो की संस्थापन के खिलाफ आवाज उठाकर जीत सकता है।
1947 में, भारत स्वतंत्र हो गया।
लेकिन चारु उसी ढंग से डटें रहे और उनकी लड़ाई जारी रही। बस अंतर ये था कि भारत सरकार ने उनके भाषणों के लक्ष्य के रूप में अंग्रेजों की जगह ले ली थी।
1948 में, उन्हें राष्ट्रीय विरोधी गतिविधियों के लिए जेल में डाल दिया गया। जेल में रहने के दौरान उनकी मुलाकात कानू सान्याल नामक एक अन्य व्यक्ति से हुई, जो पश्चिम बंगाल के तत्कालीन मुख्यमंत्री को काला झंडा दिखाने के लिए जेल में सजा काट रहे थे। इन दोनों की दोस्ती जेल में ऐसे दोस्तों की तरह जमी जो की काफी लम्बे समय बाद एक दूसरे से मिल रहे हों।
1960 के दशक तक, चारु और कानू को अपना आदर्श मिल चूका था-- चीन के माओ ज़ेदोंग। ये दोनों माओ ज़ेदोंग से बहुत प्रभावित थे और वे भी विश्वास करते थे, ठीक उसी तरह जैसे कि माओ ज़ेदोंग करते थे-- सरकार को गिराने और किसानों के लिए एक सुखमय जीवन जीने के लिए सशस्त्र संघर्ष करना।
ऐतिहासिक आठ दस्तावेज[1]को चारु ने इस दौरान चीन के चेयरमैन माओ के पदचिह्नों पर सशस्त्र संघर्ष की विचारधारा को स्थापित करने के लिए जारी किया था।
चारु और कानू दोनों को पश्चिम बंगाल के तत्कालीन सहानुभूतिपूर्ण स्थानीय प्रेस में नायक के रूप में सम्मानित किया गया।