अगर हम इसकी परिभाषा से इसे समझाए तो यह एक तरह से नास्तिकता-आस्तिकता एवं धर्म ग्रंथो मे उलझे बगैर मानव मात्र के शारीरिक, मानसिक,चारित्रिक एवं बौद्धिक स्वभाव को उच्चतम संभावित बिंदु तक विकसित करने के लिए प्रतिपादित विद्या एवं सेवा का नाम ही धर्मनिरपेछता है।मगर संविधान मे धर्मनिरपेछता आदर्श के रूप मे रखा गया है, इससे आशय है कि कोई भी राज्य किसी भी धर्म विशेष को राज्य के धर्म के रूप मे घोषित नहीं करेगा, किसी भी नागरिक के साथ धार्मिक आधार पर भेद-भाव नही किया जायेगा।साधारण शब्दों में केवल इतना ही की धर्मनिरपेछता हमारे संविधान की शान है और सबको इस पर गर्व का भाव रखना चाहिए।
Loading image...