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Nakul Chauhan

university.nakul@gmail.com | पोस्ट किया | Education


सोवियत संघ का विघटन: इतिहास, कारण और वैश्विक प्रभाव

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सोवियत संघ का विघटन 1991 में हुआ था, और यह घटनाक्रम न केवल रूस या मध्य एशिया, बल्कि समग्र वैश्विक राजनीति के लिए एक निर्णायक मोड़ था। सोवियत संघ (Soviet Union), जिसका आधिकारिक नाम "सोवियत सोशलिस्ट रिपब्लिक्स यूनियन" (Union of Soviet Socialist Republics – USSR) था, दुनिया का सबसे बड़ा समाजवादी और साम्यवादी देश था। यह संघ 1922 में स्थापित हुआ था और 1991 में अपने विघटन तक वैश्विक राजनीति, आर्थिक संरचनाओं और सैन्य शक्ति का प्रमुख केंद्र बना हुआ था। सोवियत संघ का विघटन न केवल एक बड़े साम्राज्य के अंत का प्रतीक था, बल्कि यह नई राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक व्यवस्था की दिशा में एक महत्वपूर्ण बदलाव भी था।

 

इस लेख में हम सोवियत संघ के विघटन के विभिन्न कारणों का विश्लेषण करेंगे, इसकी आंतरिक समस्याओं और बाहरी दबावों को समझेंगे, और देखेंगे कि इस विघटन ने न केवल रूस और उसके उपग्रह देशों, बल्कि पूरी दुनिया पर किस प्रकार प्रभाव डाला।

 

सोवियत संघ का विघटन: इतिहास, कारण और वैश्विक प्रभाव

 

सोवियत संघ का गठन और प्रारंभिक इतिहास

सोवियत संघ का गठन 1917 की अक्टूबर क्रांति के परिणामस्वरूप हुआ था, जब रूस में बोल्शेविक पार्टी ने सीज़ार शासन को समाप्त कर दिया था और रूस में समाजवादी शासन की स्थापना की। लेनिन के नेतृत्व में रूस में साम्यवादी शासन की शुरुआत हुई, और धीरे-धीरे उसने अन्य देशों को भी इस विचारधारा के तहत एकत्र किया। 1922 में रूस, यूक्रेन, बेलारूस, और काकेशस क्षेत्र (आर्मेनिया, अज़रबैजान, और जॉर्जिया) के साथ मिलकर सोवियत संघ की नींव रखी।

 

सोवियत संघ का उद्देश्य एक ऐसे समाज का निर्माण करना था जहाँ वर्गविहीन समाज, सामूहिक उत्पादन, और संपत्ति का समान वितरण किया जाए। 1945 के बाद, सोवियत संघ ने अपने प्रभाव क्षेत्र का विस्तार किया और पूर्वी यूरोप में अपने समाजवादी शासन को स्थापित किया। यह पूरे यूरोप में, खासकर द्वितीय विश्व युद्ध के बाद, एक शक्तिशाली सामरिक और राजनीतिक शक्ति के रूप में उभरा।

 

सोवियत संघ की आंतरिक समस्याएँ

सोवियत संघ का विघटन एक लंबी प्रक्रिया का परिणाम था, जो कई आंतरिक और बाहरी कारणों से उत्पन्न हुआ था। इस प्रक्रिया की शुरुआत 1980 के दशक के मध्य से मिखाइल गोर्बाचोव के सत्ता में आने के साथ हुई, लेकिन इसके पीछे के कारण उससे कहीं पहले के थे।

 

1. आर्थिक संकट

1970 और 1980 के दशकों में सोवियत संघ की अर्थव्यवस्था में गंभीर समस्याएँ उत्पन्न होने लगी थीं। सोवियत मॉडल ने न केवल उत्पादन की गुणवत्ता में गिरावट का सामना किया, बल्कि योजनाबद्ध अर्थव्यवस्था के कारण नवाचार और प्रतिस्पर्धा की कमी भी हो गई थी। इसके परिणामस्वरूप, सोवियत संघ में औद्योगिक उत्पादन में मंदी और उपभोक्ता वस्तुओं की कमी देखने को मिली। साथ ही, पश्चिमी देशों से प्रतिस्पर्धा और वैश्विक बाज़ार में बदलाव ने भी सोवियत संघ की आर्थिक स्थिति को कमजोर कर दिया।

 

2. राजनीतिक भ्रष्टाचार और प्रशासनिक विफलताएँ

सोवियत संघ में सत्ता के केंद्रीकरण और प्रशासन में बढ़ता भ्रष्टाचार भी एक महत्वपूर्ण समस्या थी। पार्टी और सरकार के उच्च अधिकारियों के बीच गहरी राजनीतिक प्रतिस्पर्धा और प्रशासनिक विफलताएँ सोवियत संघ की स्थिरता को प्रभावित करने लगी थीं। इस स्थिति ने न केवल जनता के विश्वास को हिलाया, बल्कि पार्टी के अंदर भी असंतोष पैदा किया।

 

3. सामाजिक असंतोष

सोवियत संघ में नागरिक अधिकारों की कमी, राजनीतिक स्वतंत्रता की बाधाएँ, और व्यक्तित्व की स्वतंत्रता पर प्रतिबंधों के कारण नागरिकों में असंतोष बढ़ने लगा था। 1970 और 1980 के दशकों में, विभिन्न जातीय और सांस्कृतिक समूहों ने स्वतंत्रता और स्वायत्तता की माँगें उठाईं। यही नहीं, सोवियत संघ के भीतर अलग-अलग क्षेत्रों में असंतोष की भावना ने अपने-अपने देशों की स्वतंत्रता की ओर बढ़ने का मार्ग प्रशस्त किया।

 

मिखाइल गोर्बाचोव और सुधार

1985 में मिखाइल गोर्बाचोव सोवियत संघ के प्रमुख बने। उनकी प्रमुख योजनाओं में पेरोस्त्रॉयका (आर्थ‍िक और राजनीतिक सुधार) और ग्लासनोस्त (सार्वजनिकता और पारदर्शिता) शामिल थीं। इन सुधारों का उद्देश्य सोवियत संघ की नीतियों को सुधारना और आम जनता को अधिक राजनीतिक स्वतंत्रता देना था।

 

1. पेरोस्त्रॉयका (आर्थ‍िक सुधार)

गोर्बाचोव ने सोवियत अर्थव्यवस्था को पुनः जीवित करने के लिए पेरोस्त्रॉयका की शुरुआत की। इसका उद्देश्य आर्थिक सुधार, निजी क्षेत्र में कुछ स्वतंत्रता देना, और अधिक दक्षता हासिल करना था। हालांकि, ये सुधार आंतरिक विरोध का सामना करते हुए बहुत हद तक असफल रहे। यह कदम एक समय में योजनाबद्ध अर्थव्यवस्था की समाप्ति की दिशा में बढ़ते हुए दिखाई दिया।

 

2. ग्लासनोस्त (सार्वजनिकता और पारदर्शिता)

गोर्बाचोव ने ग्लासनोस्त की नीति भी लागू की, जिसके तहत मीडिया और राजनीतिक गतिविधियों में अधिक पारदर्शिता और खुलापन लाने का प्रयास किया गया। इससे सोवियत संघ के नागरिकों को सरकार के भ्रष्टाचार और प्रशासनिक विफलताओं का पता चला, और सरकार के खिलाफ असंतोष में वृद्धि हुई। यह स्थिति धीरे-धीरे अस्थिरता का कारण बनी।

 

3. नवीन विचारधारा और स्वतंत्रता की आहट

सोवियत संघ में नई सोच और विचारधाराओं का उदय हुआ। मध्य और पूर्वी यूरोप में उत्पन्न हो रहे स्वतंत्रता आंदोलनों का प्रभाव सोवियत संघ पर पड़ा, और लोग अधिक स्वतंत्रता, लोकतंत्र, और राष्ट्रीय पहचान की ओर बढ़ने लगे। विशेषकर बαλ्टिक देशों में स्वतंत्रता की माँगें बढ़ीं।

 

सोवियत संघ के विघटन के प्रमुख कारण

सोवियत संघ का विघटन कई आंतरिक और बाहरी कारकों का परिणाम था। यहाँ कुछ प्रमुख कारण दिए गए हैं:

 

1. राष्ट्रीयता और जातीय संघर्ष

सोवियत संघ में विभिन्न जातीय और सांस्कृतिक समूहों की पहचान को दबाया गया था। हर संघीय गणराज्य और क्षेत्र की अपनी विशेषताएँ थीं, और समय के साथ इन समूहों में स्वतंत्रता की भावना जगी। 1980 के दशक में, बाल्टिक देशों (एस्तोनिया, लातविया, और लिथुआनिया) और काकेशस क्षेत्र में स्वतंत्रता की आंदोलन तेज हो गए थे।

 

2. ग्लोबल दबाव और शीत युद्ध का अंत

1980 के दशक में शीत युद्ध का अंत हुआ, और सोवियत संघ को पश्चिमी देशों के मुकाबले राजनीतिक, सैन्य और आर्थिक दबावों का सामना करना पड़ा। सोवियत संघ की सैन्य शक्ति का मुकाबला करना उसके लिए कठिन हो गया। 1989 में बर्लिन दीवार का गिरना और पूर्वी यूरोप में कम्युनिस्ट शासन का पतन सोवियत संघ के लिए एक बड़ा झटका था। इन घटनाओं ने यह स्पष्ट कर दिया कि सोवियत संघ की शक्ति अब पहले जैसी नहीं रही।

 

3. गोरबाचोव की विफलताएँ

गोर्बाचोव के सुधारों की असफलता और उनकी नीतियों के परिणामस्वरूप देश के अंदर असंतोष और अधिक बढ़ गया। उनके प्रयासों के बावजूद, सोवियत संघ के विभिन्न हिस्सों में राजनीतिक, आर्थिक, और सामाजिक समस्याएँ बनी रही, जो अंततः संघ के विघटन का कारण बनीं।

 

4. येल्तसिन का उदय और रूस का अलगाव

1991 में रूस के राष्ट्रपति बने बोरिस येल्तसिन ने सोवियत संघ के विघटन को तेज किया। येल्तसिन का रूस, सोवियत संघ से अलग होकर स्वतंत्रता की ओर बढ़ने के लिए प्रतिबद्ध था। उन्होंने एक स्वतंत्र रूस की स्थापना की दिशा में कई कदम उठाए, और उनकी सरकार ने अंततः सोवियत संघ के विघटन को स्वीकार कर लिया।

 

1991 का संकट और विघटन

1991 की गर्मियों में, सोवियत संघ में एक गंभीर संकट उत्पन्न हुआ। 19 अगस्त 1991 को, सोवियत संघ के एक समूह ने एक सैन्य तख्तापलट की योजना बनाई, ताकि गोर्बाचोव को सत्ता से हटा दिया जाए। हालांकि यह तख्तापलट विफल हो गया, लेकिन इससे देश में अराजकता फैल गई।

 

इसके परिणामस्वरूप, 8 दिसंबर 1991 को रूस, यूक्रेन और बेलारूस के नेताओं ने बеловेज़ा समझौते पर हस्ताक्षर किए, जिसके तहत सोवियत संघ के विघटन की घोषणा की गई। 25 दिसंबर 1991 को गोर्बाचोव ने राष्ट्रपति पद से इस्तीफा दे दिया, और उसी दिन सोवियत संघ का आधिकारिक रूप से विघटन हो गया। यह घटना इतिहास में एक महत्वपूर्ण मोड़ के रूप में दर्ज हुई, क्योंकि 15 स्वतंत्र देशों का गठन हुआ, और एक नई वैश्विक व्यवस्था का जन्म हुआ।

 

सोवियत संघ का विघटन: परिणाम और प्रभाव

सोवियत संघ का विघटन केवल एक सामरिक या राजनीतिक बदलाव नहीं था, बल्कि इसने विश्व की भू-राजनीतिक स्थिति, आर्थिक व्यवस्था और सामाजिक संरचनाओं पर भी गहरा प्रभाव डाला। यह विघटन न केवल रूस, बल्कि मध्य एशिया, बाल्टिक राज्य, और पूर्वी यूरोप के देशों के लिए भी नई चुनौतियाँ लेकर आया।

 

1. रूस का उदय और शक्ति में बदलाव

सोवियत संघ के विघटन के बाद रूस के सामने एक नई चुनौती थी – वह अपनी नई पहचान और शक्ति का निर्धारण कैसे करेगा। रूस, जो पहले सोवियत संघ का एक प्रमुख घटक था, अब स्वतंत्र राष्ट्र के रूप में उभरा, लेकिन उसके पास सोवियत संघ की पुरानी विरासत और उसकी आर्थिक तथा सैन्य शक्तियाँ थीं। बोरिस येल्तसिन के नेतृत्व में रूस ने आर्थिक उदारीकरण और लोकतांत्रिक सुधारों की ओर कदम बढ़ाया। हालांकि, 1990 के दशक में रूस में गंभीर आर्थिक संकट आया, और "रूस के विध्वंस" का एक दौर चला, जिसके कारण लाखों लोग गरीबी और बेरोजगारी के शिकार हुए। यह परिवर्तन रूस के सामाजिक और राजनीतिक परिप्रेक्ष्य को गहरे तरीके से प्रभावित करने वाला था।

 

2. नए राष्ट्रों का गठन और उनके सामने आने वाली समस्याएँ

सोवियत संघ के विघटन के बाद 15 नए स्वतंत्र राष्ट्रों का गठन हुआ: रूस, यूक्रेन, बेलारूस, कजाखस्तान, उज़्बेकिस्तान, ताजिकिस्तान, कीर्गिस्तान, तुर्कमेनिस्तान, आर्मेनिया, अज़रबैजान, जॉर्जिया, मोल्दोवा, लातविया, लिथुआनिया, और एस्टोनिया। इन देशों को एक नई दिशा में नेतृत्व करने की आवश्यकता थी। हालांकि, अधिकांश देशों में लोकतांत्रिक संस्थाओं का निर्माण और अर्थव्यवस्था के पुनर्निर्माण की प्रक्रिया धीमी रही, लेकिन कुछ देशों ने जल्दी ही आर्थिक सुधार और राजनीतिक स्थिरता की ओर कदम बढ़ाए।

 

कई देशों में, जैसे कि यूक्रेन, जॉर्जिया, और मोल्दोवा, सोवियत संघ से अलग होने के बाद जातीय संघर्ष और आंतरिक असंतोष पैदा हो गया। जातीय पहचान और सीमाओं की समस्याएँ प्रमुख बन गईं, जिससे कई बार संघर्ष भी उत्पन्न हुए। साथ ही, रूस और अन्य देशों के बीच पारस्परिक संबंधों में अस्थिरता और असहमति रही, जिससे भू-राजनीतिक संकट की स्थिति बनी।

 

3. सैन्य शक्ति और शीत युद्ध का अंत

सोवियत संघ का विघटन शीत युद्ध के अंत का प्रतीक था। पश्चिमी दुनिया और विशेष रूप से संयुक्त राज्य अमेरिका के लिए यह एक बड़ी विजय थी। सोवियत संघ की शक्ति और उसकी सामरिक ताकत का अंत हुआ, और पश्चिमी देशों का प्रभुत्व बढ़ा। इसका स्पष्ट उदाहरण 1990 के दशक के अंत में नाटो (NATO) का विस्तार और यूरोप में नई सुरक्षा व्यवस्था का निर्माण था।

 

सैन्य दृष्टिकोण से, सोवियत संघ का विघटन रूस और अन्य पूर्व सोवियत देशों के लिए एक चुनौती बन गया। सोवियत संघ के विशाल और समृद्ध सैन्य उपकरणों और परमाणु हथियारों का आधा हिस्सा रूस को मिला, जबकि बाकी देशों ने अपने-अपने सैन्य बलों को पुनर्गठित किया। रूस ने अपनी सेना और परमाणु हथियारों को नियंत्रित करने की प्रक्रिया को पूरा किया, लेकिन कुछ अन्य देशों में इस समय आतंकवाद और सुरक्षा संबंधित समस्याएँ बढ़ गईं।

 

4. वैश्विक राजनीति में बदलाव

सोवियत संघ के विघटन के साथ ही वैश्विक राजनीति में बदलाव आया। पूर्वी यूरोप और मध्य एशिया के देशों ने पश्चिमी लोकतांत्रिक देशों और अंतरराष्ट्रीय संगठनों के साथ अपने संबंधों को मजबूत करना शुरू किया। यूरोपीय संघ (EU) और नाटो ने पूर्व सोवियत देशों के साथ अपने संबंधों को बढ़ाया, और कई देशों ने इन संगठनों में शामिल होने के लिए प्रयास किए। इससे एक नई वैश्विक व्यवस्था का निर्माण हुआ, जो सोवियत साम्राज्य के पतन के बाद के समय की राजनीति को परिभाषित करने लगी।

 

दूसरी ओर, रूस ने अपने प्रभाव क्षेत्र को फिर से स्थापित करने के लिए कदम उठाए, विशेष रूप से मध्य एशिया, काकेशस, और पूर्वी यूरोप में। रूस ने यह महसूस किया कि वह वैश्विक शक्ति के रूप में अपनी स्थिति को पुनः स्थापित करने के लिए एक नई रणनीति तैयार कर रहा था।

 

5. समाज और संस्कृति पर प्रभाव

सोवियत संघ के विघटन का समाज पर भी गहरा प्रभाव पड़ा। सोवियत संघ की केंद्रीय योजना और समाजवादी आदर्शों के स्थान पर अब एक मुक्त बाज़ार अर्थव्यवस्था, लोकतांत्रिक संस्थाएँ और व्यक्तिगत स्वतंत्रता के विचार बढ़ने लगे। लेकिन इस परिवर्तन ने एक नई असमानता को जन्म दिया, जिसमें अमीर और गरीब के बीच की खाई और भी गहरी हो गई।

 

सोवियत संघ के विघटन के बाद विभिन्न देशों में सांस्कृतिक पहचान का पुनर्निर्माण हुआ। कई देशों ने अपनी प्राचीन सांस्कृतिक और ऐतिहासिक धरोहरों की ओर लौटने का प्रयास किया। साथ ही, रूस में सोवियत संघ की विरासत को लेकर एक प्रकार का मानसिक संघर्ष भी जारी रहा, क्योंकि बहुत से लोग इसे एक स्थिर और शक्तिशाली राज्य के रूप में याद करते थे।

 

निष्कर्ष

सोवियत संघ का विघटन 1991 में एक ऐतिहासिक घटना थी, जिसका प्रभाव पूरी दुनिया पर पड़ा। यह केवल एक सामरिक और राजनीतिक परिवर्तन नहीं था, बल्कि एक नए वैश्विक आर्थिक, सामाजिक, और सांस्कृतिक बदलाव की शुरुआत थी। सोवियत संघ का विघटन हमें यह समझने में मदद करता है कि किसी भी साम्राज्य या शक्ति का पतन केवल एक दिन में नहीं होता, बल्कि यह कई आंतरिक और बाहरी कारकों के संयोजन का परिणाम होता है।

 

आज, सोवियत संघ का विघटन केवल एक ऐतिहासिक घटना नहीं है, बल्कि यह हमारे लिए एक चेतावनी है कि किसी भी राजनीतिक व्यवस्था को लगातार सुधार और अनुकूलन की आवश्यकता होती है, ताकि वह समय की मांगों के साथ तालमेल बैठा सके। इसके अलावा, यह हमें यह भी सिखाता है कि किसी भी साम्राज्य या शक्ति का पतन वैश्विक राजनीति, समाज, और आर्थिक संरचनाओं पर गहरा प्रभाव डालता है, जो आने वाली पीढ़ियों के लिए एक महत्वपूर्ण पाठ बनता है।

 

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