Creative director | पोस्ट किया |
2020 Views
मंटो की मंटोइयत आज उनकी मृत्यु के बाद भी उतनी ही प्रासंगिक है जितनी उनकी मृत्यु से पहले थी | अब आप पूछेंगे कि "भई ये मंटोइयत है क्या ?" मंटोइयत वह है जब आप खुदको कीचड़ में डाल देते हैं उस कीचड़ को साफ़ करने के लिए | मंटोइयत वह है जब समाज की गन्दगी आपको दिखाई देती है और आप उसके खिलाफ आवाज़ उठाते हैं और लोग आपको यह कहके गिरा देते हैं की गन्दगी तुम्हारे चश्मे में हैं, समाज में नहीं , परन्तु फिर भी आप अपना चश्मा नहीं बदलते |
मंटो उर्दू लेखक हैं जिनकी कहानियाँ समाज के आईने से काम नहीं हैं | उन्होंने भारत पाकिस्तान के बंटवारे के आस पास हुई समाजिक घटनाओ का कटाक्ष और निर्ममता से वर्णन किया | उनकी कहानियों में तोबा तेग सिंह,खोल दो, खाली सलवार और ठंडा गोश्त प्रमुख है | मंटो धर्म के नाम पर होने वाली लड़ाइओ से अक्सर किनारा करते थे, उनका कहना था कि "तुम मुझे बन्दूक कि गोली से एक आज़ाद मौत दे दो, मैं ख़ुशी से मरूंगा, मगर मुझे इन धार्मिक दंगो के पत्थर लग जाए तो मैं तड़प तड़प के मर जाऊंगा |"
मंटो भारत पाकिस्तान के बंटवारे से इतने घायल हुए की उनकी आखिरी सांस तक यह घाव उन्हें कचोटते रहे | नहीं- नहीं! घाव तन के नहीं थे जो भरे नहीं, घाव मन के थे जिन्हे वह जीते जी भर नहीं पाए |
मंटो ने यही कुछ 22 लघुकथाएं, एक उन्यास और जाने कितने ही निबंध लिखे | उनपर अक्सर आरोप लगाए जाते थे कि उनकी कहानियाँ अश्लील हैं, जो समाज के लिए अच्छी नहीं | इस कारण वह छह बार जेल भी जा चुके थे, तीन बार बंटवारे से पहले और तीन बार बंटवारे के बाद | मंटो की कहानियों को अश्लील कहे जाने पर भी मंटो ने कहानियाँ लिखना नहीं छोड़ा |
मंटो की कहानियों में वो है जो शायद आज के लेखक लिखने से पहले हज़ार दफा सोचेंगे, क्योंकि ज़िन्दगी का मोल उन्हें मालूम है, और मंटो को तो कभी ज़िन्दगी जीने का सबब समझ नहीं आया |
“ज़माने के जिस दौर से हम गुज़र रहे हैं, अगर आप उससे वाकिफ़ नहीं हैं तो मेरे अफसाने पढ़िये और अगर आप इन अफसानों को बरदाश्त नहीं कर सकते तो इसका मतलब है कि ज़माना नाक़ाबिले-बरदाश्त है। मेरी तहरीर(लेखन) में कोई नुक़्स नहीं । जिस नुक़्स को मेरे नाम से मनसूब किया जाता है, वह दरअसल मौजूदा निज़ाम का एक नुक़्स है। मैं हंगामा-पसन्द नहीं हूं और लोगों के ख्यालात में हैज़ान पैदा करना नहीं चाहता। मैं तहज़ीब, तमद्दुन, और सोसाइटी की चोली क्या उतारुंगा, जो है ही नंगी। मैं उसे कपड़े पहनाने की कोशिश भी नहीं करता, क्योंकि यह मेरा काम नहीं, दर्ज़ियों का काम है ।”
- सआदत हसन मंटो
जिस अश्लीलता की हम समाज में बात करते हैं, क्या वह केवल किताबो में ही है ? यह भी तो हो सकता है कि समाज ही अश्लील हो | यदि समाज हमारे सामने शालीनता का नकाब ओढ़ता हो तो क्या उसकी वह सच्चाई छिप जायगी जो बंद कमरों में निर्वस्त होती है | यह वही सच्चाई है जिसे सआदत हसन मंटो ने अपनी कहानियों के माध्यम से उजागर किया था, और यह वही सच्चाई है जिसकी कड़वाहट लोगो को अक्सर हज़म नहीं होती थी |
सआदत हसन मंटो का औरतों के प्रति सहानुभूति और आदर का भाव था | उन्हें समाज में फैली गन्दगी और औरतों के प्रति समाज कि सोच से नफरत थी | औरतो को किस तरह घर के कोने में पड़ी रहने वाली वस्तु समझा जाता था, को आप उनकी कहानियों में स्पष्ट रूप से देख सकते हैं |
मलाल यह है कि वह अब समाज की सच्चाई को उजागर करने के लिए नहीं हैं, और ख़ुशी इस बात की है कि अच्छा है नहीं हैं, नहीं तो हर दिन एक नई मौत मरते |