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मोहनदास गांधी ने सन 1887 में मैट्रिक परीक्षा पास की। घर के लोगों की इच्छा थी कि वे कॉलेज में पढ़े। कॉलेज की पढ़ाई के लिए उन्हें भावनगर भेजा गया। परंतु मोहनदास वहां एक ही साल पढ़ सके। उसके बाद घर वापस आए।
गांधी परिवार के पुराने मित्र और सलाहकार मावजी देव ने एक बार मोहन की पढ़ाई के बारे में माता पुतलीबाई से पूछ-ताछ की सब बातें जानने के बाद उन्होंने यह सलाह दीः--
मेरी राय है कि मोहनदास को इसी साल विलायत भेज दें। वहाँ वह तीन साल पढ़कर बैरिस्टर होकर लौट आएगा। फिर मावजी ने मोहनदास से भी पूछा। मोहनदास को उनकी यह सलाह अच्छी लगी।
पर विलायत जाना आसान न था। पिताजी राज्य के दीवान तो रह चुके थे, लेकिन पैसा कुछ छोड़ नहीं गए थे। राज्य की तरफ से मदद पाने की कोशिश हुई, मगर उसमें सफलता न मिली। बड़े भाई दिल के बहुत उदार थे। उन्होंने किसी भी तरह रुपयों का बंदोबस्त करने का बीड़ा उठाया।
लेकिन विलायत जाने में एक और रुकावट यह भी थी कि उन दिनों कुछ लोगों का यह विचार था कि समुद्र-यात्रा करनेवालों का धर्म नष्ट हो जाता है। बिरादरीवाले ऐसे लोगों को अपने साथ बिठाते भी नहीं थे। यह एक बड़ा कठिन सवाल था।
माता पुतलीबाई ने कहा—नहीं, मेरा मोहन विलायत नहीं जाएगाः
इसपर जान-पहचान के एक साधु ने रास्ता सुझाते हुए कहा – “भाई, अगर मोहन प्रतिज्ञा कर ले और वहां जाकर अपने धर्म से रहे, तो क्या हर्ज है?”
माताजी ने कहा – “नहीं, फिर तो कोई हर्ज नहीं।“
साधु ने मोहनदास से पूछा—“मोहन, बोलो, माताजी के सामने तीन प्रतिज्ञाएँ लेनी होगी, लोगे?
मोहन—“कैसी प्रतिज्ञाएँ ?”
तीन प्रतिज्ञाएः
बोलो, मंजूर हैँ- यह तीनों बातें?
मोहन—“जी हाँ, मंजूर है, दिल से मंजूर हैं।“
साधु-- “तो फिर आ जाओ सामने, और मां के चरण छूकर प्रतिज्ञा करो |”
मोहनदास ने माता जी के चरणों में झुकते हुए कहा – “माताजी, मैं विदेश में शराब नहीं पियूँगा, माँस नहीं खाऊंगा, पराई स्त्री को मां-बहन के समान समझूंगा।“
प्रतिज्ञा का महत्वः
गांधीजी के जीवन में इन प्रतिज्ञाओं का बड़ा महत्व रहा | उनका विश्वास था कि कमजोरी की घड़ियों में ऐसी प्रतिज्ञाएँ ही मनुष्य को गिरने से बचाती है और आदर्श से हटने नहीं देतीं।
इंग्लैंड की यात्रा के समय जहाज में ही मोहनदास से कहां गया, एक तरफ से डराया ही गया, कि विलायत के वातावरण में शराब पिए बिना रहना मुश्किल है। लेकिन गांधी अपनी प्रतिज्ञा पर अटल रहे। उन्हें इंग्लैंड में मांस न खाने के कारण बड़ी तकलीफ हुई, अन्नाहार पर कई प्रयोग किये। अंत में गांधीजी जिंदगी भर माँस ना खाने का निश्चय किया। एक बार गांधीजी कुचाल चलने की ओर कुछ आगे बढ़े। ठीक समय पर एक साथी ने चेतावनी दी। गांधी को प्रतिज्ञा याद आई। प्रतिज्ञाओं के कारण गांधीजी ने अपने चरित्र को पतित होने नहीं दिया।\