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रामधारी सिंह दिनकर द्वारा 1952 में लिखा गया खंड काव्य 'रश्मिरथी' महाभारत के पात्र कर्ण के जीवन पर आधारित है । रश्मिरथी का अर्थ है सूर्य का रथ चलाने वाला अर्थात वह व्यक्ति जो सूर्य के रथ को चलाता हो । यह नाम जितना सरल जान पड़ता है उससे कही ज्यादा इसके अर्थ में गहराई है । कर्ण सूर्य पुत्र थे परन्तु उनको जन्म देने वाली अविवाहित माता कुंती ने उन्हें गंगा में बहा दिया । कानो में कनक कुण्डल और छाती पर कवच वाले कर्ण को एक सारथी अधिरथ ने अपनाया ।
कर्ण सारथि पुत्र अवश्य थे परन्तु उनके अंदर अभी भी कुरु रक्त दौड़ रहा था जिसने उन्हें जीवन में वो पाने की ललक से भर दिया जो एक सारथि के पुत्र के लिए अमानवीय था । कर्ण ने सर्वश्रेठ धनुर्धारी बनने के लिए बहुत संघर्ष किया और जब वह अपने संघर्ष के फल हेतु अर्जुन को ललकारने गए तो वहाँ उन्हें अपमान से अधिक कुछ नहीं मिला । उस भीड़ में केवल एक ही हाथ था जिसने कर्ण को अपनाया, और वह था दुर्योधन ।
कर्ण के संघर्ष से भरे जीवन और उनके दानवीर कर्ण बनने की कहानी का रामधारी सिंह दिनकर ने बहुत ही सरलता और सुंदरता से व्याख्यान किया है । रश्मिरथी कर्ण के जीवन के हर उस पल को दर्शाता है जिसने कर्ण के भाग्य की नींव रखी ।
कर्ण सूर्यपुत्र होकर भी उन सभी सुख और सम्मान से दूर रहे जिसके वह अधिकारी थे । रश्मिरथी में कर्ण के चरित्र की विशेषताएं, उनकी ग्लानि, पीड़ा और करुणा का सार है ।
महाभारत में कर्ण की भूमिका केवल एक काल के लिए ही प्रासंगिक नहीं थी परन्तु यह हर युग में उतनी ही प्रासंगिक थी और है । महाभारत
मनुष्यों के बीच जाति पाति के आधार पर हो रहे भेदभाव की एक ऐसी घटना है जिसने हर युग में केवल विध्वंस का कार्य किया है ।
रश्मिरथी उस पीड़ा को दर्शाती है जिससे होकर कर्ण गुज़रे थे, उस भाव को दर्शाती है जिसने एक भाई को भक्षक और एक शत्रु को रक्षक बना दिया ।
कर्ण की गाथा गंगा से शुरू हुई थी और कुरुक्षेत्र के रण पर जाके खत्म हुई | भाइयों के बीच के द्वेष ने महाभारत को जन्म दिया और कर्ण को उनकी खोयी हुई पहचान परन्तु तब जब बहुत देर हो चुकी थी | रश्मिरथी कारण की वह गाथा है जिसे गाथा से ज्यादा व्यथा के रूप में व्यक्त किया जा सकता है | यदि आप कर्ण के मुख से उसके संघर्ष को जानना चाहते हैं तो आपको अवश्य ही रामधारी सिंह दिनकर की रश्मिरथी को पढ़ना चाहिए |