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क्या जयचंद सच में गद्दार था? जयचंद की मौत कैसे हुई थी?


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ऐसे प्रतापी महाराजाधिराज जिनको कई उपाधियो से नवाजा गया है कान्यकुब्जेश्वर धर्मपरायण देशभक्त महाराजा जयचंद जी को यौवनो के नाशक , दलपंगुल व नारायण का अवतार बताया गया है !!

कान्यकुब्जेश्वर धर्मपरायण देशभक्त महाराजा जय चन्द्र जी का जन्म सन् 1114 ईस्वी मे महाशिवरात्रि के दिन हुआ था !!

इसी दिन इनके दादा महाराजा गोविन्द चंद्र गहरवार जी ने दशार्ण देश ( पूर्वी मालवा) पर विजय प्राप्त किया था !! इसका उल्लेख करते हुए नयचन्द्र ने अपनी पुस्तक 'रम्भामंजरी' में लिखा है-

पितामहेन तज्जन्मदिने दशार्णदेशेसु प्राप्तं प्रबलम् !!

यवन सैन्य जितम् अतएव तन्नाम जैत्रचन्द्रः !!

अर्थात् इनके जन्म के दिन पितामह ने युद्ध में यवन-सेना ( बाहरी आक्रमणकारी म्लेच्छो ) पर विजय प्राप्त किया अतः इनका नाम जैत्रचन्द्र पड़ा।

तत्कालीन संस्कृत-साहित्य में महाराज जयचन्द्र के अनेक नाम मिलते हैं।

  • मेरुतुंग ने प्रबन्धचिन्तामणि में 'जयचन्द्र', राजशेखर सूरि ने प्रबन्धकोश में 'जयन्तचन्द्र', नयचन्द्र ने रम्भामंजरी में 'जैत्रचन्द्र' कहा है !!
  • जबकि लोक में 'जयचन्द' कहा जाता है। 'रम्भामंजरी' के अनुसार महाराज जयचन्द्र की माता का नाम 'चन्द्रलेखा' था, जो अनंगपाल तोमर की ज्येष्ठ पुत्री थीं ! किन्तु 'पृथ्वीराज रासो' के छन्द संख्या 681-682 के अनुसार उनका नाम सुन्दरी देवी था।
  • 'भविष्यपुराण' में महाराज जयचन्द्र की माता का नाम चन्द्रकान्ति बताया गया है।
  • आषाढ़ शुक्ल दशमी संवत् 1224 तदनुसार रविवार 16 जून, 1168 को पिता महाराज विजयचन्द्र ने जयचन्द्र को युवराज के पद पर अभिषिक्त किया।
  • आषाढ़ शुक्ल षष्ठी संवत् 1226 तदनुसार रविवार 21 जून, 1170 ई. को महाराज जयचन्द्र का राज्याभिषेक हुआ था।
  • राज्याभिषेक के पश्चात् महाराज जयचन्द ने अनेक युद्धों में विजय प्राप्त किया।
  • 'पृथ्वीराज रासो' के अनुसार महाराज जयचन्द ने सिन्धु नदी पर मुसलमानों (सुल्तान, गौर) से ऐसा घोर संग्राम किया कि रक्त के प्रवाह से नदी का नील जल एकदम ऐसा लाल हुआ मानों अमावस्या की रात्रि में ऊषा का अरुणोदय हो गया हो।
  • महाकवि विद्यापति ने 'पुरुष परीक्षा' में लिखा है कि यवनेश्वर सहाबुद्दीन #_मोहम्मद__गौरी को जयचन्द्र जी ने कई बार रण में परास्त किया।
  • और युध्द क्षेत्र से भागकर मोहम्मद गौरी ने अपना जान बचाया था !!
  • 'रम्भामञ्जरी' में भी कहा गया है कि महाराज जयचन्द्र ने यवनों ( बाहरी आक्रमणकारी म्लेच्छ तुर्को मुगलो )का नाश किया।

बल्लभदेव कृत 'सुभाषितावली' में वर्णित है कि शहाबुद्दीन मुहम्मद गोरी द्वारा उत्तर-पूर्व के राजाओं का पददलित होना सुनकर महाराज जयचन्द्र ने उसे प्रताड़ित करने हेतु अपने दूत के द्वारा निम्नलिखित पद लिखकर भेजा-

स्वच्छन्दं सैन्य संघेन चरन्त मुक्तो भयं।

शहाबुद्दीन भूमीन्द्रं प्राहिणोदिति लेखकम्।।

कथं न हि विशंकसेन्यज कुरग लोलक्रमं।

परिक्रमितु मीहसे विरमनैव शून्यं वनम्।।

स्थितोत्र गजयूथनाथ मथनोच्छलच्छ्रोणितम्।

पिपासुररि मर्दनः सच सुखेन पञ्चाननः।।

अर्थात् स्वतन्त्र और महती सेना के साथ निर्भय भारतवर्ष में शहाबुद्दीन द्वारा राजाओं का पददलित होना सुनकर महाराज जयचन्द्र ने यह पद्य अपने दूतों से भेजा; ऐ तुच्छ मृगशावक, तू अपनी चंचलता से इस महावन रूपी भारतवर्ष में उछल-कूद मचाये हुए है !!

तेरी समझ में यह वन शून्य है अथवा तुझ-सा पराक्रमी अन्य जन्तु इस महावन में नहीं है !

यह केवल तुझे धोखा और भ्रम है।

ठहर ठहर आगे मत बढ़, निःशंकता छोड़ देख यह आगे मृगराज गजराजों के रक्त का पिपासु बैठा है !!??

यह महा-अरिमर्दक है, तेरे ऐसों को मारते इसे कुछ भी श्रम प्रतीत नहीं होता !!

वह इस समय यहाँ सुख से विश्राम ले रहा है।

महाराज जयचन्द्र के सम्बन्ध में 1186 ई. (1243 वि. सं.) में लिखे गये फ़ैज़ाबाद ताम्र-दानपत्र में वर्णित है-

अद्भुत विक्रमादय जयच्चन्द्राभिधानः पतिर्

भूपानामवतीर्ण एष भुवनोद्धाराय नारायणः।

धीमावमपास्य विग्रह रुचिं धिक्कृत्य शान्ताशया

सेवन्ते यमुदग्र बन्धन भयध्वंसार्थिनः पार्थिकाः।।

छेन्मूच्छीमतुच्छां न यदि केवल येत् कूर्म पृष्टामिधात

त्यावृत्तः श्रमार्तो नमदखिल फणश्वा वसात्या सहस्रम्।

उद्योगे यस्य धावद्धरणिधरधुनी निर्झरस्फारधार-

श्याद्दानन्द् विपाली वहल भरगलद्वैर्य मुद्रः फणीन्द्रः।।

यहाँ अभिलेखकार ने पहले श्लोक में बताया है कि महाराज विजयचन्द्र (विजयपाल = देवपाल) के पुत्र महाराज जयचन्द्र हुए, जो अद्भुत वीर थे।

राजाओं के स्वामी महाराज जयचन्द्र साक्षात् #नारायण के अवतार थे !

जिन्होंने पृथ्वी के सुख हेतु जन्म लिया था।

अन्य राजागण उनकी स्तुति करते थे।?

दूसरे श्लोक में कहा गया है कि उनकी हाथियों की सेना के भार से शेषनाग दब जाते थे और मूर्छित होने की अवस्था को प्राप्त होते थे।?

उत्तर भारत में महाराज जयचन्द्र का विशाल साम्राज्य था। उन्होंने अणहिलवाड़ा (गुजरात) के शासक सिद्धराज को हराया था। अपने राज्य की सीमा का उत्तर से लेकर दक्षिण में नर्मदा के तट तक तथा पूर्व में बंगाल के लक्ष्मणसेन के राज्य तक विस्तार किया था। मुस्लिम इतिहासकार इब्न असीर ने अपने इतिहास-ग्रन्थ 'कामिल उत्तवारीख़' में लिखता है कि महाराज जयचन्द्र के समय कन्नौज राज्य की लम्बाई उत्तर में चीन की सीमा से दक्षिण में मालवा प्रदेश तक और चौड़ाई समुद्र तट से दस मैजल लाहौर तक विस्तृत थी। महाराजा जय चन्द्र जी उस समय भारत वर्ष के सबसे बडे राजा थे ! ऐसा मुस्लिम ईतिहासकारो ने स्वयं लिखा है !!

महाराजा जयचन्द के राज्य का विस्तार 5600 वर्ग मील था !!

उस सदी मे पूरे भारत वर्ष मे सबसे बडी सेना महाराजा जय चन्द्र जी का ही था !!

#_फरिश्ता के अनुसार महाराजा जय चन्द्र जी के पास सबसे बडी विशाल सेना थी !!

#_कामिलउत्तवारिख ने वर्णन किया है कि महाराजा जय चन्द्र जी महाराजा जय चन्द्र जी की सेना मे 700 हाथिया थी !!

#_ताजल-म-आथीर के अनुसार महाराजा जय चन्द्र जी की सेना बालुका कणों के अनुसार #___असंख्य थी !!

सुर्यप्रकाश लिखते है - महाराजा जय चन्द्र जी की सेना मे 80 हजार कवचधारी सैनिक , 3 लाख पैदल सेना , 2 लाख धनुर्धारी , 30 हजार अश्वारोही और बहुसंख्यक हाथी थी !!

इसके अलावा स्वयं पृथ्वी राज रासो के लेखक कवि चंदरवरदाई ने ही स्वयं महाराजा जय चन्द्र जी की #विशाल सेना का वर्णन किया !!

स्वयं पृथ्वी राज रासो मे चंदरवरदाई ने महाराजा जय चन्द्र जी को " दल पंगुल" कहा है !!

अर्थात जिसकी सेनाये हमेशा विचरण करती रहती थी !!

कुछ ईतिहासकारो ने तो हजारो हाथीओ और लाखो घोडो का भी वर्णन किया है इतनी विशाल सेना होने के कारण ही महाराजा जयचन्द जी को " #_दल_पंगुल" की उपाधि मिली थी !!

राज शेखर सूरी ने अपने प्रबंधकोश मे कहा है कि काशीराज जय चंद्र विजेता थे ,और गंगा यमुना दोआब तो उनका विशेष रूप से अधिकृत प्रदेश था ! नयनचंद्र ने रंभामंजरी मे महाराजा जय चन्द्र जी को यौवनो का नाशक और विशाल सेना का संचालक लिखा है !!

उन्होने लिखा कि महाराजा जयचंद युध्दप्रिय होने के कारण अपनी सैन्य शक्ति ऐसी बढाई की वह #_अद्वितीय हो गई !! जिस कारण से महाराजा जय चन्द्र जी को "दल पंगुल" उपाधि से जाना जाने लगा !!

विद्यापति जी अपने "पुरूष -परिक्षा" लिखते है कि महाराजा जय चन्द्र जी उसी मोहम्मद गौरी को कई बार हराया थे !!

#_रम्भामंजरी मे भी महाराजा जय चन्द्र जी के विशाल सेना और विशाल राज्य का उल्लेख है !!

इन सभी प्रमाणो के आधार पर कोई भी सत्य से अवगत हो सकता है कि बिना छल से महाराजा जय चन्द्र जी को हराना मुश्किल है !!

नयनचंद्रकृत "रंभामंजरी " मे जयचंद्र महाराज के भुजाओं की ताकत की तुलना चंदेलो के राजा " मदन वर्मा " राज्यश्री रूपी हाथी को बांधने के लिये खंभ से कि गयी है !!

महाराज मदन वर्मा ( 1129 - 1163 ) व महाराजा जयचंद्र का शासन काल ( 1170-1194 ) रहा जिससे यह स्पष्ट होता है कि यह।उपलब्धि महाराजा जयचन्द जी ने अपने युवराज काल मे ही हासिल किया था !

!

समकालीन साहित्य से पता चलता है कि चंदेलो के राजा परमाल चंदेल और महाराजा जयचंद्र जी मे मैत्रीपूर्ण संबंध रहे है !!

आल्हा ऊदल जैसे महान योध्दा भी महाराजा जयचंद्र जी के सेनापति रहे थे !

!

ऐसे प्रतापी महाराजा जयचन्द जी पर कुछ बेवकूफ वामपंथी विचारधारा से ग्रसित लोग कपोल कल्पित कहानीया सुनकर महाराजा जयचंद्र जी पर आरोप लगाते है कि महाराजा जयचंद्र जी गद्दार थे -

उनके उन सभी प्रश्नों के प्रमाणिक जवाब !!

महाराजा जयचन्द जी व सम्राट पृथ्वी राज चौहान जी का नाम आते ही लोगो के मन मे संयोगिता का जिक्र आ जाता है !!

जिसको लेकर काफी काल्पनिक कहानीया प्रचलन मे रहती है जो चंदरबरदाई की काल्पनिक "पृथ्वीराज रासो से अपजी!!

जैसा कि समस्त शोधो और प्रमाणो के साथ ईतिहासकार डाॅ आनन्द शर्मा जी ने अपनी पुस्तक " अमृत पुत्र " मे स्पष्ट लिखा है कि महाराजा जय चन्द्र जी को कोई बेटी नही थी !! और किसी भी समकालिन ईतिहास मे संयोगिता का प्रमाण नही मिलता !!

जिससे पृथ्वी राज रासो की प्रमाणिकता पर संदेह उठता है !!

और कई ईतिहासकारो ने पृथ्वी राज रासो को प्रमाणित नही माना है !! इससे अलग कुछ ईतिहासकार महाराजा जय चन्द्र जी की दासी पुत्री संयोगिता का होना मानते है !!

जिसे महाराजा जयचन्द जी बेटी समान मानते थे !!

जैसा लोगो ने संयोगिता अपहरण की कहानीया सुनी होगी सम्राट पृथ्वी राज चौहान जी द्वारा !!

लेकिन इस अपहरण मे हुआ क्या था पढिये - स्वयंबर आयोजन होता है !!

सभी अलग अलग प्रांत के युवराजो को आमंत्रण दिया गया था लेकिन सम्राट पृथ्वी राज चौहान जी को नही बुलाया गया था !! क्योकि पृथ्वीराज रासो मे ही वर्णित है कि सम्राट पृथ्वी राज चौहान जी व महाराजा जयचंद्र जी सगे मौसेरे भाई थे ( पृथ्वी राज रासो) !

अब स्थिति मे कोई बडा भाई छोटे भाई को अपनी बेटी से विवाह करने के लिये आमंत्रित तो नही करेगा ना !!

फिर स्वयंबर के समय वेष बदलकर सम्राट पृथ्वी राज चौहान जी व कवि चंदरबरदाई स्वयंबर मे आते है !!

फिर चंदरबरदाई महाराजा जय चन्द्र जी के पास पहुचकर उनको पान भेट करता है जिसे खाते ही महाराजा जयचन्द जी को मूर्छा आ जाता है !!

और इसी बीच संयोगिता का अपहरण कर सम्राट पृथ्वी राज चौहान वहा से भागते है लेकिन फिर महाराजा जय चन्द्र जी मुर्क्षा से बाहर आते ही पीछा करते है फिर -

तौ लौ लश्कर के पीछे से , जयचंद्र गये सामने आय !

मची लडाई फिर फाटक पर , जयचंद्र डोला लयो छिनाय!

सेना रहि नाय दिल्ली मे , निर्बल भयो पिथौरा राय ( पृथ्वी राज चौहान) !

पैरि उखडि गये चौहानन के , बूतो रहो देह मे नाय !!

एक संयोगीन के मिलिबे मे, सगरो पौरूष गयो बिलाय!!

सर्वनाश भारत के कारण , यह संयोगीन रही कहाय!!

शक्ति मेटि के चौहानन की , क्षत्री दल को गयी चबाय!!

पौरूष घटि गये राजपूतन के , लये विदेशी यहा बुलाय ।

एक संयोगीन पिरथी यश मे , कालिख रूप गयी दर्शाय !

छोड माजरा इन बातन की , अब आगे को कहौ सुनाय !

गाफिल कर के पृथ्वीराज को , जयचंद्र कैद करि लिवाय!

पृथ्वीराज जयचंद से बोले , तुमको ऐसी मुनासिब नाय !

डोला बाहर हुई संयोगीन, नृप जयचंद्र पर कही सुनाय !

खता माफ मेरी बाबूल करिये , मन के शोक देऊ बिसराय!

जो तुम मरिहौ मेरे प्रियतम को , तो मै पेटि फारि मर जाऊ!!

बाबुल सब दिन तुम दुख पहौ, लैंलें संयोगीन को नाऊ !!

यह मन भाय गई जयचंद के , अरु पिरथी को दऊ छुडाय!

अपनी करि के डोला छौडो , सुन ले बात पिथौरा राय!

तुम मौसेरे भाई होकर, ईज्जत हरी हमारी आय !

श्राप हमारो तुमको ऐसे , तुम्हारी काया जाय नशाय!

वचन मान लियो संयोगीन को , अपने हाथ उठैंहें नाय !!

जब लौ जिंदा जयचंद जग मे , तब लौ चैन लेन के नाय !!

तासे तुमको प्राणदान देऊ, डोला दिल्ली जाय लिवाय!!

इतना कहकर राजा जयचंद अपना लश्कर देऊ घुमाय बीर शूर जुझे जयचन्द के , चालीस शूर पिथौरा क्यार ।

डोला लेकर पिरथी चलि दै, पहुचे अपने महल मझार!!

( आल्हा खंड)

अर्थात पीछा करते हुये महाराजा जय चन्द्र पृथ्वी राज चौहान को रोक लेते है !!

फिर दोनो मे भीषण युध्द होता है जिसमे 20 सामंत/ शुरवीर महाराजा जयचन्द जी व 40 सामंत/शुरवीर पृथ्वी राज चौहान के मारे जाते है !!

जिस युध्द मे सम्राट पृथ्वी राज चौहान हार जाते है और बंदी बना लिये जाते है !! जैसे ही महाराजा जयचन्द जी पृथ्वी राज चौहान जी की तरफ बढते है तो डोला से संयोगीन बाहर आकर बोलती है कि बाबूल मेरी गलती माफ करिएगा। मैं पृथ्वीराज चौहान का वरण कर चुकी हूं। अगर आप उन्हें मारेंगे तो मैं भी अपना पेट फाडकर मर जाऊंगी।

बाबूल सब दिन आपने मेरे दुख हरे आज आप ही मेरी जान लेगे !

संयोगिता के इन्ही सब शब्दो से महाराजा जय चन्द्र जी के मन व्यथित हो उठा और वह सम्राट पृथ्वी राज चौहान को छोड देता है और प्राण दान दे देते है और साथ मे वचन भी देते है कि संयोगिता को मानकर वचन देता हु कि जब तक जयचन्द जग मे जिंदा है तब तक न मै तुम पर हाथ उडाऊगा और न ही हमसे तुमको कोई हानि होगी !!

इतना कहकर पृथ्वी राज चौहान को छोडकर अपना लश्कर घुमाकर महाराजा जयचन्द जी अपने महल चले आते है !! और फिर पुरोहित दिल्ली जाकर सारी विधियां के अनुसार शादी संपन्न करवाते है !

अब कुछ वामपंथी विचारधारा के लोग महाराजा जय चन्द्र जी पर जो कुछ प्रश्न उठाते है कि महाराजा जय चन्द्र जी ने संयोगिता अपहरण का बदला लेने के लिये सम्राट पृथ्वी राज चौहान जी को मारने के लिए मोहम्मद गौरी को बुलाया !!

तो वेवकूफ जी अगर महाराजा जय चन्द्र जी को सम्राट पृथ्वी राज चौहान जी को मारना ही होता तो संयोगिता अपहरण के समय ही मार देते !!

या अगर महाराजा जय चन्द्र जी को सम्राट पृथ्वी राज चौहान जी पर आक्रमण करना होता तो जिस समय उनके सेनापति आल्हा ऊदल थे उसी समय संयुक्त सेना के साथ कर सकते थे लेकिन ऐसा कुछ भी नही किये वो !!

क्योकि उन्होने जुबान दिया था कि वह कभी सम्राट पृथ्वी राज चौहान जी के खिलाफ नही जायेंगें !!

फिर यह आरोप सीधा सीधा निराधार हुआ !!

आरोप लगते वक्त वह मानसिक रोगी लोग यह भूल जाते है कि वह मोहम्मद गौरी वही है जो महाराजा जयचन्द जी का सबसे बडा शत्रु है !!

जिस म्लेच्छ को महाराजा जय चन्द्र जी ने पहले ही हराया था !!

फिर किसी भी प्रकार से आरोप वाली बात सत्य प्रतीत होती ही नही !! कुछ लोग प्रश्न उठाते है कि महाराजा जय चन्द्र जी ने सम्राट पृथ्वी राज चौहान और मोहम्मद गौरी के युध्द मे पृथ्वी राज चौहान जी का साथ नही दिया उनकी तरफ से लडने नही गये !

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तो भाई सम्राट पृथ्वी राज चौहान जी ने किसी भी राजा को आमंत्रित नही किया था युध्द मे !! और बिना आमंत्रण के कोई राजा कैसे जायेगा !!

दुसरी बात महाराजा जय चन्द्र जी ने भी मोहम्मद गौरी से युध्द किया था 1192 से पहले और उसे हराया भी था !!

और महाराजा जय चन्द्र जी ने यौवनो से कई युध्द लडा था जिसमे उन्होने भी किसी राजा को आमंत्रित नही किया और पृथ्वी राज चौहान जी व अन्य राजा उनकी तरफ से युध्द करने नही गये !!

अब अगर बिना आमंत्रण के अगर कोई राजा किसी की तरफ से युध्द नही किया तो आप उस पर आरोप नही लगा सकते है !!

हा अगर इस युध्द मे सम्राट पृथ्वी राज चौहान जी महाराजा जय चन्द्र जी को आमंत्रित किये होते तो वह अवश्ययुध्द मे भाग लेते !!

क्योकि बाहरी आक्रमण कारी म्लेचछो के खिलाफ वह हमेशा तटस्थ रहते थे !! और सम्राट पृथ्वी राज चौहान जी ने किसी से मदद इसलिये नही माँगा क्योकि वह मोहम्मद गौरी को कई बार युध्द मे हरा चुके थे !! इसलिये वो अस्वस्त थे कि वह मोहम्मद गौरी को अकेले ही हरा लेंगें !!

और यकिनन सम्राट पृथ्वी राज चौहान जी मोहम्मद गौरी को हरा भी लेते अगर उनके हाथ गद्दारी न हुआ हो तो !!

सम्राट पृथ्वी राज चौहान जी के हाथ गद्दारी हुआ और यह गद्दारी इन चारो ने किया था !! #गौरी को भेद देने वाले थे -?

1.नीतिराव खत्री (सिन्धी)

2.प्रतापसिंह जैन(बनिया,पूँजीपति)

3.#माधोभट्ट (ब्राह्मण, बुद्धिजीवी)

4.धर्मायन कायस्थ(कायस्थ)

जो तँवरो के कवि (बंदीजन) और अधिकारी थे

(पृथ्वीराज रासो-उदयपुर संस्करण)।}}}

इन्ही लोगो ने सम्राट पृथ्वी राज चौहान जी की कमजोरी और गुप्त योजनाओं की जानकारी मोहम्मद गौरी तक पहुंचाया था !!

इन्ही लोगो की गद्दारी की वजह से सम्राट पृथ्वी राज चौहान जी हारे थे !! सन् 1192 के पहले सम्राट पृथ्वी राज चौहान जी ने मोहम्मद गोरी को को कई बार परास्त किया था !!

लेकिन 1192 तराईन के द्वितीय युध्द मे उन चारो के गद्दारी के कारण सम्राट पृथ्वी राज चौहान जी हार गये और मोहम्मद गौरी द्वारा दिल्ली व अजमेर पर आधिपत्य कर लिया और दिल्ली पर कुतुबुददीन ऐबक को बैठाकर अफगान चला गया !!

इस युद्ध के दो वर्ष बाद सन् 1194 में गौरी दुबारा विशाल सेना लेकर भारत को जीतने के लिए आया।

इस बार उसका कन्नौज जीतने का इरादा था। कन्नौज उस समय सम्पन्न राज्य था। गौरी ने उत्तर भारत में अपने विजित इलाके को सुरक्षित रखने के अभिप्राय से यह आक्रमण किया।

वह जानता था कि बिना शक्तिशाली कन्नौज राज्य को अधीन किए भारत में उसकी सत्ता कायम न रह सकेगी ।तराईन के युद्ध के दो वर्ष बाद कुतुबुद्दीन ऐबक ने जयचन्द पर चढ़ाई की। सुल्तान शहाबुद्दीन रास्ते में पचास हजार सेना के साथ आ मिला। और दोनो सेनाये आपस मे मिल गई , मुस्लिम आक्रमण की सूचना मिलने पर जयचन्द जी भी अपनी सेना के साथ युद्धक्षेत्र में आ गये ।

दोनों के बीच इटावा के पास ‘चन्दावर नामक स्थान पर मुकाबला हुआ। युद्ध में राजा जयचन्द हाथी पर बैठकर सेना का संचालन करने लगे ।

इस युद्ध में जयचन्द की #_पूरी__सेना नहीं थी। सेनाएँ विभिन्न क्षेत्रों में थी, जयचन्द के पास उस समय थोड़ी सी सेना थी। महाराजा जय चन्द्र जी की और सेना सीमा पर टुकडी टुकडी रूप मे भ्रमण कर रही थी !

महाराजा जय चन्द्र जी की सेना बहुत कम होने पर भी भीषण संग्राम हुआ , महाराजा जय चन्द्र जी की सेना ने भीषण रक्तपात किया ! कि गौरी और ऐबक व उनके सैनिको के पसीने छूट गये !

गौरी की सारी सेना सहम गई और गौरी समझ मे युध्दनिती से लडते हुये महाराजा जय चन्द्र जी को नही हराया जा सकता !

कहा जाता है कि महाराजा जयचंद्र जी जब रण मे उतरते थे तो यौवन सेनाओं के पैर डगमगाने लगते थे !

80 वर्ष की आयु मे भी महाराजा जय चन्द्र जी घनघोर मार काट मचा रखा था !!

लेकिन छल से किसी ने जयचन्द महाराज के #आॅख मे छिपकर एक तीर मार दिया , जिससे वह लडने मे असमर्थ हो गये और उनका प्राणान्त हो गया !!

युद्ध में गौरी की विजय हुई। यह युद्ध वि.सं. १२५० (ई.स. ११९४) को हुआ था।!!

#काल्पनिक_आरोप !!

महाराजा जयचन्द पर देशद्रोही का आरोप लगाया जाता है। कहा जाता है कि उसने पृथ्वीराज पर आक्रमण करने के लिए गौरी को भारत बुलाया और उसे सैनिक संहायता भी दी। वस्तुत: ये आरोप निराधार हैं। ऐसे कोई प्रमाण नहीं हैं जिससे पता लगे कि जयचन्द ने गौरी की सहायता की थी।

कोई भी ईतिहासकार यह नही मानता कि महाराजा जयचंद्र गद्दार है !!

सभी ईतिहासो का यही कहना है कि महाराजा जयचंद एक प्रतापी धर्मपरायण महाराजा थे!!

कुछ ईतिहासकारो के प्रमाणित कथन दे रहा हूं ...प्रमाण के स्वरुप ??

प्रमाण कि पृथ्वीराज चौहान के साथ हुयी गद्दारी मे यवनो का नाश करने वाले महाराजा जयचंद जी का कोई वास्ता नही था ...??

डॉ. आर.सी. #मजूमदार - का मत है कि इस कथन में कोई सत्यता नहीं है कि महाराज जयचंद ने पृथ्वीराज पर आक्रमण के लिए मुहम्मद गौरी को आमंन्त्रित किया हो

( एन्सेंट इण्डिया पृ. ३३६ डॉ. आर.सी. मजूमदार) |

अपनी एक अन्य पुस्तक में भी इन्ही विद्वान ईतिहासकार ने निमंत्रण की बात का खण्डन किया है |

जे. सी. #पॉवेल प्राइस महोदय - का स्पष्ट मत है कि यह बात आधारहीन है कि महाराज जयचंद ने

गौरी को पृथ्वीराज चौहान पर आक्रमण करने के लिए आमंत्रित किया |

( #हिस्ट्री_ऑफ_इण्डिया ) में जानेमाने ईतिहासकार और संस्कृत विद्वान डॉ. #रामशंकर_त्रिपाठी का कथन है कि जयचंद पर यह आरोप सरासर असत्य है | और इन्होने माना है कि समकालीन मुसलमान ईतिहासकार इस बात पर पूर्णतया मौन है कि

अतः यह आरोप मिथ्या है। पृथ्वीराज रासो में यह बात कहीं नहीं कही गई कि जयचन्द ने गौरी को बुलाया था। इसी प्रकार समकालीन फारसी ग्रन्थों में भी इस बात का संकेत तक नहीं है कि जयचन्द ने गौरी को आमन्त्रित किया था। यह एक सुनी-सुनाई बात एक रूढि बन गयी !!

सिर्फ इतने ही नही बल्कि भारत देश व अन्य बाहरी मुस्लिम लेखको ने भी महाराजा #जय_चन्द्र जी एक #धर्मपरायण देशभक्त महाराजा थे , उनके ऊपर लगे आरोपों का कोई आधार नही है , यह आरोप निराधार है !

उन ईतिहासकारो के नाम किताब का नाम पृष्ठ संख्या सहित प्रमाण के तौर पर -

1 - नयचन्द्र : रम्भामंजरी की प्रस्तावना !!

2 - Indian Antiquary, XI, (1886 A.D.), Page 6,

श्लोक 13-14 !!

3 - #भविष्यपुराण, प्रतिसर्ग पर्व, अध्याय 6 !!

4 - Dr. R. S. Tripathi : History of Kannauj,

Page 326 !!

5 - Dr. Roma Niyogi : History of Gaharwal

Dynasty, Page 107 !!

6 - J. H. Gense : History of India (1954 A.D.),

Page 102 !!

7 - John Briggs : Rise of the Mohomeden

Power in India (Tarikh-a-Farishta),

Vol. I, Page 170 !!

8 - डॉ. रामकुमार दीक्षित एवं कृष्णदत्त वाजपेयी :

कन्नौज, पृ. 15 !!

9 - Dr. R. C. Majumdar : Ancient Indian, Page

336 एवं An Advanced History of India,

Page 278 !!

10 - Dr. Roma Niyogi : History of Gaharwal

Dynasty, Page 112 !

11 - J. C. Powell-Price : History of India,

Page 114 !!

12 - Vincent Arthur Smith : Early History of

India, Page 403 !!

13 - डॉ. आनन्दस्वरूप मिश्र : कन्नौज का इतिहास,

पृ. 519-555 !!

14 - डाॅ. आनन्द शर्मा : अमृत पुत्र, पृ. viii-xii !!

15 - डाॅ. आनन्द शर्मा : अमृत पुत्र, पृ. xi !!

#_नोट : राजा जयचंद गद्दार नहीं, #_निर्दोष थे,

और एक प्रतापी न्यायप्रिय धर्म परायण राजा थे ! वे दुष्प्रचार के शिकार हुये

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