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भगवद गीता, जो महाभारत के भीष्म पर्व का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है, भारतीय दर्शन और अध्यात्म का एक प्रमुख ग्रंथ है। इसमें श्रीकृष्ण ने अर्जुन को जीवन, कर्म, धर्म, मोक्ष और आत्मज्ञान के विषय में उपदेश दिया है। गीता में वेदों का उल्लेख भी कई स्थानों पर हुआ है और वेदों के महत्व पर कृष्ण ने अपने दृष्टिकोण को स्पष्ट किया है। हालांकि वेदों का स्थान गीता में उच्च है, श्रीकृष्ण यह भी बताते हैं कि वेद केवल कर्मकांड और यज्ञों तक सीमित नहीं हैं, बल्कि उनसे परे एक गहरा आध्यात्मिक सत्य भी है, जिसे आत्मसात करना आवश्यक है।
वेदों का महत्व: गीता के तीसरे अध्याय में श्रीकृष्ण वेदों के महत्व की चर्चा करते हुए कहते हैं कि वेदों में विभिन्न कर्मों का वर्णन है, विशेष रूप से यज्ञ, तपस्या और अन्य धार्मिक अनुष्ठानों का। वेदों में दिए गए नियम जीवन को संयमित और संतुलित रखने के लिए हैं, और वे मानव के लिए प्रारंभिक मार्गदर्शन प्रदान करते हैं। उदाहरण के लिए, गीता 3.15 में कहा गया है कि वेदों से ही कर्म की उत्पत्ति होती है और वेदों को भगवान ने प्रकट किया है।
वेदों से परे ज्ञान: हालांकि श्रीकृष्ण वेदों के महत्व को स्वीकार करते हैं, लेकिन वे यह भी बताते हैं कि वेदों में वर्णित कर्मकांड और यज्ञों का पालन करने से ही मोक्ष या परम सत्य की प्राप्ति नहीं हो सकती। गीता 2.45 में श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं:
"त्रैगुण्यविषया वेदा निस्त्रैगुण्यो भवार्जुन।
निर्द्वन्द्वो नित्यसत्त्वस्थो निर्योगक्षेम आत्मवान्।।"
इस श्लोक में श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं कि वेद मुख्यतः त्रिगुणों (सत्त्व, रजस, तमस) के क्षेत्रों से संबंधित हैं। लेकिन अर्जुन को त्रिगुणों से ऊपर उठकर आत्म-साक्षात्कार के मार्ग पर चलने का उपदेश दिया जाता है। इसका अर्थ यह है कि वेदों में जो कर्मकांड और यज्ञों का वर्णन है, वे आवश्यक हैं, परंतु उनसे परे भी एक उच्च सत्य है, जो आत्मज्ञान है।
वेदों का सीमित दृष्टिकोण: गीता के अध्याय 2, श्लोक 46 में श्रीकृष्ण एक महत्वपूर्ण दृष्टिकोण रखते हैं:
"यावानर्थ उदपाने सर्वतः सम्प्लुतोदके।
तावान्सर्वेषु वेदेषु ब्राह्मणस्य विजानतः।।"
इस श्लोक का अर्थ यह है कि जैसे एक छोटे जलाशय का उपयोग तब तक होता है जब तक चारों ओर पानी न हो, उसी प्रकार जब कोई आत्मज्ञान प्राप्त कर लेता है, तो वेदों में वर्णित कर्मकांडों की सीमित उपयोगिता रह जाती है। इसका तात्पर्य यह नहीं है कि वेद अनुपयोगी हैं, बल्कि यह है कि आत्मज्ञानी व्यक्ति के लिए वेदों का कर्मकांडिक पक्ष सीमित हो जाता है, क्योंकि उसने ज्ञान के उच्चतर स्तर को प्राप्त कर लिया होता है।
निष्कर्ष: वेदों के प्रति भगवद गीता का दृष्टिकोण द्विविध है। एक ओर, गीता वेदों की प्रतिष्ठा और उनके द्वारा निर्देशित धार्मिक और नैतिक कर्मों को महत्व देती है। दूसरी ओर, गीता यह भी बताती है कि वेदों का ज्ञान सीमित है और मोक्ष के लिए केवल कर्मकांड पर्याप्त नहीं हैं। मोक्ष प्राप्त करने के लिए आत्मज्ञान और भक्ति की आवश्यकता होती है। गीता यह संदेश देती है कि वेदों के कर्मकांडिक भाग से ऊपर उठकर व्यक्ति को आत्मा के शाश्वत सत्य की ओर बढ़ना चाहिए, जो सभी धर्मों और यज्ञों से परे है।
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