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Shivani Patel

| पोस्ट किया | शिक्षा


तराईन का प्रथम युद्ध कब और किनके बीच हुआ?


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university.nakul@gmail.com | पोस्ट किया


तराईन का प्रथम युद्ध भारतीय इतिहास का एक महत्वपूर्ण युद्ध था, जो 12वीं शताब्दी में हुआ था। यह युद्ध दिल्ली के शहंशाह पृथ्वीराज चौहान और अफगान शासक मोहम्मद गोरी के बीच 1191 में लड़ा गया था। यह युद्ध भारतीय इतिहास में विशेष स्थान रखता है क्योंकि इसमें भारत के मध्यकालीन साम्राज्य की राजनीति, युद्ध नीति, और दोनों पक्षों की सामरिक ताकत का प्रदर्शन हुआ था।

 

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युद्ध का पृष्ठभूमि

मोहम्मद गोरी, जो अफगानिस्तान के ग़ज़नी का शासक था, ने भारत के उत्तरी क्षेत्र में अपनी विस्तारवादी नीतियों को लागू करने का निर्णय लिया। उसने ग़ज़नी से भारत की ओर कई आक्रमण किए थे। 1190 के आस-पास उसने पश्चिमी भारत की ओर कूच किया और लाहौर (जो उस समय पंजाब का प्रमुख शहर था) पर आक्रमण कर उसे कब्जा कर लिया। इसके बाद, उसकी नज़र दिल्ली और आसपास के क्षेत्र पर थी, जहां पृथ्वीराज चौहान का शासन था।

 

पृथ्वीराज चौहान, जो अजमेर और दिल्ली के शासक थे, अपने साम्राज्य की रक्षा के लिए पूरी तरह तैयार थे। उनका साम्राज्य उस समय के सबसे शक्तिशाली राजवंशों में से एक था। उन्होंने गोरी के आक्रमण को रोकने के लिए एक मजबूत सैन्य बल तैयार किया और दोनों सेनाओं के बीच युद्ध की स्थिति उत्पन्न हो गई।

 

युद्ध का स्थल और सैन्य ताकतें

तराईन का युद्ध हरियाणा के तराईन क्षेत्र में हुआ, जो दिल्ली से कुछ किलोमीटर दूर स्थित था। यह क्षेत्र उस समय के लिए रणनीतिक दृष्टि से बहुत महत्वपूर्ण था, क्योंकि यह दोनों सेनाओं के बीच की सीमा रेखा पर स्थित था।

 

पृथ्वीराज चौहान की सेना में उच्च गुणवत्ता वाले घुड़सवार सैनिक और पैदल सैनिक थे। उनके पास युद्ध के लिए प्रशिक्षित एक मजबूत सैन्य बल था, जो उनके शौर्य और नेतृत्व के कारण प्रसिद्ध था। इसके विपरीत, मोहम्मद गोरी की सेना भी पर्याप्त रूप से सुसज्जित थी, जिसमें घुड़सवार, पैदल सैनिक और हाथी शामिल थे। गोरी के पास विशेष रूप से अजनबी सैनिकों का एक विशाल दल था, जो उसकी सेना की ताकत को और बढ़ा देता था।

 

युद्ध का संचालन

तराईन के युद्ध में दोनों सेनाओं के बीच घमासान संघर्ष हुआ। पृथ्वीराज चौहान ने अपनी पूरी सैन्य ताकत के साथ गोरी को चुनौती दी। युद्ध की शुरुआत में पृथ्वीराज की सेना ने गोरी की सेना को भारी नुकसान पहुंचाया। पृथ्वीराज ने अपनी युद्ध रणनीति में घातक हमलों का इस्तेमाल किया, जिससे गोरी की सेना उलझन में आ गई।

 

इस युद्ध में पृथ्वीराज ने गोरी को भारी नुकसान पहुँचाया और उसे पीछे हटने पर मजबूर किया। ग़ज़नी के शासक मोहम्मद गोरी को इस युद्ध में पराजय का सामना करना पड़ा, और उसे अपनी सेना को वापस बुलाना पड़ा। युद्ध के बाद पृथ्वीराज ने गोरी को सुरक्षित रूप से वापस जाने का आदेश दिया।

 

युद्ध का परिणाम

तराईन का प्रथम युद्ध पृथ्वीराज चौहान की विजय के रूप में समाप्त हुआ। मोहम्मद गोरी को इस युद्ध में अपनी सेना के एक बड़े हिस्से का नुकसान हुआ और वह भारत में अपने आक्रमण को स्थगित करने के लिए मजबूर हुआ। इस विजय ने पृथ्वीराज चौहान के साम्राज्य को सुरक्षा दी और उनकी ताकत में इज़ाफा हुआ।

 

हालाँकि, इस युद्ध की विजय केवल अस्थायी थी। यह युद्ध किसी अंतिम निर्णय पर नहीं पहुंचा और यह केवल एक क्षणिक सफलता थी। गोरी ने बाद में 1192 में एक और आक्रमण किया, जो तराईन का दूसरा युद्ध था, जिसमें पृथ्वीराज चौहान की सेना को पराजय का सामना करना पड़ा।

 

युद्ध की ऐतिहासिक महत्वता

तराईन का प्रथम युद्ध भारतीय इतिहास के दृष्टिकोण से कई मायनों में महत्वपूर्ण है। यह युद्ध भारत में आक्रमणकारियों और स्थानीय शासकों के बीच संघर्ष की एक नई शुरुआत थी। इस युद्ध ने यह स्पष्ट कर दिया कि भारत में विदेशी आक्रमणों का मुकाबला करने के लिए मजबूत सैन्य संरचना और नेतृत्व की आवश्यकता है।

 

इसके अतिरिक्त, इस युद्ध ने भारतीय सैन्य रणनीति और घेराबंदी युद्ध की महत्वता को उजागर किया। पृथ्वीराज चौहान की विजय ने भारतीय शासकों को विदेशी आक्रमणों के खिलाफ अपनी रक्षा की रणनीति पर पुनः विचार करने के लिए प्रेरित किया।

 

वहीं, मोहम्मद गोरी की पराजय के बावजूद, उसका भारत पर दोबारा हमला और उसकी सफलताएँ ने भारतीय उपमहाद्वीप में मुस्लिम सत्ता की नींव रखी। गोरी की पराजय ने उसे कड़े सबक दिए, लेकिन इसके बावजूद उसने हार से घबराए बिना भारत पर फिर से आक्रमण करने की योजना बनाई, जो अंततः उसकी सफलता का कारण बनी।

 

निष्कर्ष

तराईन का प्रथम युद्ध 1191 में पृथ्वीराज चौहान और मोहम्मद गोरी के बीच लड़ा गया था। यह युद्ध भारतीय उपमहाद्वीप के इतिहास में एक महत्वपूर्ण मोड़ था। हालांकि इस युद्ध में पृथ्वीराज की विजय हुई, लेकिन यह लड़ाई केवल एक अस्थायी सफलता साबित हुई। बाद में गोरी ने 1192 में भारत में फिर से आक्रमण किया, जिसमें पृथ्वीराज चौहान की सेना को हार का सामना करना पड़ा। इस युद्ध ने भारतीय इतिहास में विदेशी आक्रमणों और उनका प्रतिरोध करने के महत्व को उजागर किया।

 


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