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भारत का इतिहास जटिल है, अर्थात् अस्पष्ट सा है क्योंकि भारत के प्राचीन साहित्य व दर्शन की जानकारी के अनेक साधन उपलब्ध हैं। पर भारत के प्राचीन इतिहास की जानकारी के स्रोत संतोषप्रद नहीं हैं। यही कारण रहा है कि पुरातन काल संबंधी भारतीय संस्कृति या समाज की शासन-व्यवस्था की कोई प्रामाणिक जानकारी उपलब्ध नहीं है। इसी से भारत का इतिहास इतना जटिलताओं से भरा है। खासतौर पर प्राचीन भारत का इतिहास।
फिर भी ऐसे साधन अवश्य उपलब्ध हैं जिनके अध्ययन और सर्वेक्षण से प्राचीन भारत की तस्वीर हमारे सामने बहुत कुछ स्पष्ट हो जाती है। और इनके बिना हमारा वह इतिहास-बोध करीब-करीब असंभव ही हो जाता है। इन्हें ही 'ऐतिहासिक ग्रंथ' का नाम दिया गया।
प्राचीन भारत के इतिहास की जानकारी प्रदान करने वाले ऐसे साधनों को दो श्रेणियों में विभाजित किया जा सकता है-- साहित्यिक और पुरातात्विक साधन। इसमें साहित्यिक साधन दो प्रकार के हैं, धार्मिक तथा लौकिक साहित्य। फिर धार्मिक साहित्य के भी दो हिस्से हैं-- ब्राह्मण-साहित्य, जिसमें श्रुति और स्मृतियों के ग्रंथों को शामिल किया जाता है। और दूसरे इनसे इतर अब्राह्मण साहित्य हैं। इसी तरह लौकिक-साहित्य के चार भाग किये जाते हैं-- ऐतिहासिक साहित्य, विदेशी विद्वानों के विवरण, जीवनी, और कल्पना प्रधान या गल्प साहित्य। इसी तरह, प्राचीन भारत की झलक देने वाले पुरातात्विक सामग्रियों को तीन हिस्सों में बांटा जा सकता है -- अभिलेख, मुद्रायें और भग्नावशेष स्मारक।
बात प्राचीन भारतीय ऐतिहासिक ग्रंथों की करें तो इसमें 'राजतरिंगिणी' का नाम सबसे ऊपर रखा जा सकता है। इसे भारत के 'ऐतिहासिक ग्रंथों' की श्रेणी में प्राचीनतम माना गया है। इसके रचयिता कल्हण हैं। 'राजतरिंगिणी' की रचना कल्हण ने 1147-48 में की। इसमें आदिकाल से लेकर 1151 ई. के प्रारंभिक वर्षों तक 'कश्मीर' के हर शासक के काल की घटनाओं का क्रमवार विवरण उपलब्ध है। यह कश्मीर में राजनैतिक उथल-पुथल का युग था।
भारतीय ऐतिहासिक कृतियों की श्रेणी में 'तमिल ग्रंथ' भी अपना महत्वपूर्ण स्थान व योगदान रखते हैं। जैसे -- नन्दिवक लाम्बकम्, ओट्टक्तूतन का कुलोत्तुगंज - पिललैत्त मिल, जय गोण्डार का कलिंगत्तुंधरणि, राज-राज-शौलन-उला और चोलवंश-चरितम्। इसी क्रम में सिंहल की दो कृतियां-- दीपवंश और महावंश भी आती हैं, जिसमें बौद्ध भारत का इतिहास मिलता है।
महान् नीतिज्ञ चाणक्य अथवा कौटिल्य की रचना-- अर्थशास्त्र में कौटिल्य ने तत्कालीन शासन-प्रणाली पर प्रकाश डाला है। यह ऐतिहासिक ग्रंथ मौर्य-कालीन समाज-व्यवस्था का एक दर्पण है। गुप्त-कालीन प्रमुख ऐतिहासिक कृति 'मुद्राराक्षस' विशाखदत्त की रचना है, जो सिकंदर के आक्रमण के ठीक बाद के भारतीय राज-समाज का चित्रण करती है। इसके साथ ही विशाखकृत 'मुद्राराक्षस' में मौर्य साम्राज्य की कुछ झलकें भी मौज़ूद हैं।
भारतीय साहित्य में अन्य अनेक पुस्तकें हैं, जो मूलतः दूसरे विषयों से संबंधित होते हुये भी भारतीय इतिहास के महत्वपूर्ण पहलुओं पर प्रकाश डालती हैं। जैसे पाणिनिकृत 'अष्टाध्यायी' एक व्याकरण-ग्रंथ होते हुये भी मौर्य-काल व उसके पूर्व की राजनैतिक व्यवस्था पर प्रकाश डालता है। और लगभग इसी काल में रचित पतंजलि के 'महाभाष्य' के लिये भी यह बात कह सकते हैं। इसके अलावा 'गार्गी संहिता पुराण' के एक हिस्से में भारत पर यवनों के आक्रमण का विवरण मिलता है। कालिदासकृत 'मालविकाग्निमित्रम्' में शुंगकाल के प्रकार राजा पुष्यमित्र के पुत्र अग्निमित्र के प्रेम-प्रसंगों का मनोहर वर्णन मिलता है, जो कि ऐतिहासिक महत्व का ही है।
वस्तुतः भारत का आधुनिक इतिहास उतना जटिल अथवा अस्पष्ट नहीं, बस कुछ विद्वानों के अनुसार उसे जोड़-घटाकर प्रस्तुत किया गया है। क्योंकि जो भी विदेशों से आक्रमणकारी यहां आये उन्होंने हमें जीत लिया, और उनकी छत्रछाया में उन्हीं के हिसाब से इतिहास भी लिखा गया। ज़ाहिर है ऐसे में विसंगतियों का उभरना स्वाभाविक ही था। और इसमें अंग्रेजों का योगदान सबसे अधिक रहा।
कुल मिलाकर देखें तो ज़ाहिर है कि भारत का इतिहास इसीलिये इतना जटिल प्रतीत होता है कि एक तो यह बहुधा विदेशियों द्वारा लिखा गया, और दूसरे उन्होंने अपने हिसाब से इसे रचा, जिससे तमाम मतभेद पैदा होने स्वाभाविक ही हो गये।
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