चीन में, शिक्षा मंत्रालय ने हाल ही में विश्वविद्यालयों से मनोवैज्ञानिक स्वास्थ्य में एक कोर्स शुरू करने के लिए कहा है जो हर प्रथम वर्ष के छात्र के लिए अनिवार्य होगा। दिशानिर्देशों के अनुसार, पाठ्यक्रम दो क्रेडिट में बांटे जायेंगे और 32 से 36 घंटे का समय आवंटित किया जाएगा।
इतना ही नहीं, मंत्रालय ने युवाओं के बीच मनोवैज्ञानिक स्वास्थ्य शिक्षा को बढ़ावा देने के लिए विभिन्न ऑनलाइन पाठ्यक्रम विकसित करने का सुझाव दिया है और विश्वविद्यालयों को उच्च शिक्षा से निपटने वाले सभी संस्थानों में कम से कम दो प्रमुख मनोवैज्ञानिकों की नियुक्ति करने की सलाह दी है।
अब आपके प्रश्न पर आते हैं कि उसी प्रणाली को भारत में अपनाया जाना चाहिए या नहीं ? मैं इसे इसके सहमत पक्ष में जवाब दूंगी | स्कूल और विश्वविद्यालय स्तर दोनों पर हमारे देश के पाठ्यक्रम में बदलाव होते रहते है और बहुत से बदलाव समयान्तरण में किये जाते हैं | अक्सर हमारे देश के मंत्री सोचते हैं कि देश के युवा केवल तभी पढ़ रहे हैं जब उन्हें संस्कृति, इतिहास या राजनीति का ज्ञान हो | यही कारण है कि केवल इतिहास पुस्तकों को पाठ्यक्रम के परिवर्तन के लिए लक्षित किया जाता है और जब भाषा का अध्ययन अनिवार्य किया जाता है तो केवल अंग्रेज़ी का समर्थन होता है |
हमारे देश के मंत्रालय, प्रशासन और शिक्षा प्रणाली में कुछ ऐसा है जो गंभीर रूप से गलत है। जहाँ एक तरफ चीन अपने नागरिकों की व्यक्तिगत समस्याओं से निपट रहा है, हम यहां संप्रदायों, गुटों, जाति, धर्म, भाषा और पूर्वाग्रहों से परे नहीं देख पा रहे | हमारी शिक्षा प्रणाली हमारे देश की विविधता को गले लगाने में विफल रही है, और अब यह उन संभावित समस्याओं से निपटने में भी असफल हो रही है जिसका सामना विद्यार्थी कर रहे हैं।
हम सभी अवसाद ( डिप्रेशन) से पीड़ित छात्रों की संख्या और आत्महत्या जैसे गंभीर कृत्यों को हर मिनट में बढ़ते देख रहे हैं|
इसके पीछे कारण हमारे शिक्षा प्रणाली का बढ़ता दबाव और कठोरता है। जबकि चीन जैसे देश छात्रों को उनकी जटिलताओं को समझकर उनकी मनोवैज्ञानिक समस्याओं से निपटने में मदद कर रहे हैं| हमारी शिक्षा प्रणाली सेक्स शिक्षा को अनिवार्य भी नहीं कर रही । भारतीय शिक्षा प्रणाली की यह बहुत बड़ी कमी या त्रुटि है जिसे उन्हें सुधारना चाहिए।
- Translated from English by Seema Thakur