विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO ) और UNICEF ने "स्कूलों में पानी और स्वच्छता" का पहला वैश्विक मूल्यांकन किया, और परिणाम काफी निराशाजनक हैं। ऐसा लगता है कि भारत एकमात्र ऐसा देश नहीं है जहां बच्चे, विशेष रूप से लड़कियां स्कूलों में उचित स्वच्छता और स्वच्छ पेयजल से रहित हैं।
हम सभी परिस्थितियों को जानते हैं जिसमें बच्चों को अक्सर स्कूल छोड़कर घर बैठना बेहतर लगता है। इन परिस्थितियों में, स्वच्छता और पानी की अनुपलब्धता अग्रणी है। WHO और UNICEF की रिपोर्ट से पता चलता है कि दक्षिण एशिया 2030 तक हर किसी के लिए स्वच्छता और स्वच्छ पानी की पहुंच प्रदान करने के सतत विकास लक्ष्य को हासिल करने के बिलकुल भी करीब नहीं है |
The Telegraph द्वारा रिपोर्ट किए गए आंकड़े, अधिकारियों द्वारा तत्काल कार्रवाई की मांग करते हैं:
• लगभग 600-900 मिलियन बच्चो को स्कूल में हाथ धोने या उचित स्वच्छता की सुविधा नहीं है।
• दुनिया के लगभग 47 प्रतिशत स्कूल बच्चों के लिए साबुन नहीं देते हैं।
• लड़कियों और लड़कों के लिए अलग-अलग शौचालयों की अनुपलब्धता दुनिया के कई हिस्सों में आज भी एक प्रमुख चिंता है।
• नर्सरी और प्राथमिक विद्यालय भी बच्चों को पेयजल नहीं देते हैं। माध्यमिक विद्यालयों में भी हाल कुछ ऐसा ही है |
• कई क्षेत्रों में लड़कियां हर महीने कुछ दिनों के लिए स्कूल छोड़ती हैं क्योंकि स्कूल में सैनिटरी पैड बदलने के बाद हाथ धोने की कोई सुविधा नहीं है।
• अलग-अलग शौचालय नहीं होने पर लड़कियों को रजोनिवृति के समय विद्यालय जाने से प्रतिबंधित कर दिया जाता है |
• गंदे पेयजल और अस्वछता के कारण बच्चो को दस्त जैसी बीमारी हो जाती है जिससे हर दिन 5 साल की उम्र से कम के लगभग दो बच्चो की मृत्यु हो जाती है |
ये बिंदु स्पष्ट रूप से स्कूल जाने वाले बच्चो के मध्य आने वाली बाधाओं को उजागर करते हैं | बच्चों, और विशेष रूप से लड़कियों का शैक्षिक विकास न केवल भारत में बल्कि हर जगह जोखिम पर है। स्कूलों को अपने बुनियादी ढांचे को बढ़ाने की और बच्चों की मूलभूत आवश्यकताओं को पूरा करने की आवश्यकता है जैसे पीने के पानी की परेशानी, जिसे पूरा करने के लिए आधे से ज़्यादा बच्चे अपने घरों से पानी की बोतले भरकर ले जाते हैं |
लड़के फिर भी इन परिस्थितियों का सामना कर लेते हैं, लेकिन लड़कियों के लिए हर दिन न सही परन्तु ,महीने में कम से कम एक बार यह स्थिति बुरा सपना बन जाती है |