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shweta rajput

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क्या किसानो को अब खेती करना बन्द कर देना चाहिए?


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किसानो क़ो खेती करना बंद नहीं करना चाहिए क्योकि शहरों मे अनाज किसानो के खेती करने की वजह से आता है। यदि किसान खेती करना बंद कर देंगे तो इंसान क्या खायेगा, इंसान भूखे मरेंगे क्योकि किसान अपना पेट काटकर शहर मे रहने वाले लोगो के लिए अनाज उगाता है, और शहरों मे जाकर अनाज बेचता है,और वही अनाज खरीदकर लोग अपनी भूख मिटाते है, किसान उच्च गुणवत्ता का अनाज शहर मे ले जाकर बेचते और कटा -पिटा अनाज आपने खाने के लिए रख लेते है, क्योकि किसान ईमानदार होते है।Letsdiskuss

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आप जानना चाहते हैं कि क्या अब किसानों को खेती करना बंद कर देना चाहिए तो मैं आपकी जानकारी के लिए बता दूं कि यदि किसान खेती करना बंद कर देंगे तो खाने के लिए अनाज कहां से प्राप्त होगा और यदि जब अनाज प्राप्त नहीं होगा तो इंसान का जीवन चल पाना संभव नहीं होगा इसलिए किसानों को खेती करना कभी भी बंद नहीं करना चाहिए क्योंकि खेती के द्वारा ही किसान अपनी जिंदगी व्यतीत करते हैं एक तो अपने परिवार का पेट पालते हैं और पूरी दुनिया को भी खेती करके अनाज प्रदान करते हैं।

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किसानों को अब खेती करना बंद कर देना चाहिए और केवल अपने परिवार के लायक उपजा कर बाकी ज़मीन को पड़त छोड़ देना चाहिए। जो लोग अपने बच्चों को डेढ़ लाख की मोटर साइकल, लाख का मोबाइल लेकर देने में एक बार भी नहीं कहते कि महँगा है, वे लोग किसानों की माँग पर बहस कर रहे है कि दूध और गेहूँ महँगा हो जाएगा। माॅल्स में जाकर अंधाधुंध पैसा उजाड़ने वाले गेंहूँ की कीमत बढ़ जाने से डर रहे हैं। तीन सौ रुपये के 100 ग्राम के भाव से मल्टीप्लैक्स के इंटरवल में पॉपकॉर्न खरीदने वाले मक्का के भाव किसान को 18 रुपये किलो से अधिक न मिलें इस पर बहस कर रहे है। एक बार भी कोई नहीं कह रहा कि मैगी, पास्ता, कॉर्नफ़्लैक्स के दाम बहुत हैं। सबको किसान का क़र्ज़ दिख रहा है और यह कि उस क़र्ज़ की माफी की माँग करके किसान बहुत नाजायज़ माँग कर रहा है। यह जान लीजिए कि किसान क़र्ज़ में आप और हमारे कारण डूबा है। उसकी फसल का उसको वाजिब दाम इसलिए नहीं दिया जाता क्योंकि उससे खाद्यान्न महँगे हो जाएँगे। 1975 में सोने का दाम 500 रुपये प्रति दस ग्राम था और गेंहू का समर्थन मूल्य किसान को मिलता था 100 रुपये। आज पेनतलिस साल बाद गेंहू लगभग 1900 रुपये प्रति क्विंटल है मतलब केवल 19 गुना बढ़ा और उसकी तुलना में सोना आज 42 हज़ार रुपये प्रति दस ग्राम है मतलब 84 गुना की दर से महँगाई बढ़ी मगर किसान के लिए उसे 19 गुना ही रखा गया। ज़बरदस्ती, ताकी खाद्यान्न महँगे न हो जाएँ। 1975 में एक सरकारी अधिकारी को 400 रुपये वेतन मिलता था जो आज साठ हज़ार मिल रहा है मतलब एक सौ पचास गुना की राक्षसी वृद्धि उसमें हुई है। इसके बाद भी सबको किसान से ही परेशानी है। किसानों को आंदोलन करने की बजाय खेती करना छोड़ देना चाहिए। बस अपने परिवार के लायक उपजाए और कुछ न करे। उसे पता ही नहीं कि उसे असल में आज़ादी के बाद से ही ठगा जा रहा है।
किसान क्यों हिंसक हो गया है यह समझना होगा, जनता को भी और सरकार को भी। किसान अब मूर्ख बनने को तैयार नहीं है। बरसों तक किया जा रहा शोषण अंततः हिंसा को ही जन्म देता है। आदिवासियों पर हुए अत्याचार ने नक्सल आंदोलन को जन्म दिया और अब किसान भी उसी रास्ते पर है। आप क्या चाहते हैं कि आप समर्थन मूल्य के झाँसे में फँसे किसान के खून में सनी रोटियाँ अपनी इटालियन मार्बल की टॉप वाली डाइनिंग टेबल पर खाते रहें और जब किसान को समझ में आए सारा खेल तो वह विरोध भी नहीं करे। आपको पता है आपका एक सांसद साल भर में चार लाख की बिजली मुफ़्त फूँकने का अधिकारी होता है, लेकिन किसान का चार हजार का बिजली का बिल माफ करने के नाम पर आप टीवी चैनल देखते हुए बहस करते हैं। यह चेत जाने का समय है। कहिए कि आप साठ से अस्सी रुपये लीटर दूध और कम से कम साठ रुपये किलो गेंहू खरीदने के लिए तैयार हैं, कुछ कटौती अपने ऐश और आराम में कर लीजिएगा। नहीं तो कल जब अन्न ही नहीं उपजेगा तो फिर तो आप बहुराष्ट्रीय कंपनियों से उस दाम पर खरीदेंगे ही जिस दाम पर वे बेचना चाहेंगी।


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