- शाम से आँख में नमी सी है
- आज फिर आप की कमी सी है
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कितने साधारण से शब्दों में गुलज़ार ने कितनी बड़ी बात कह डाली थी |
है न सोचने वाली बात ना जाने किसके लिए लिखी होंगी गुलजार ने ये पंक्तियां? अपनी प्रेयसी राखी के लिए या फिर अपनी शायरी के उन दीवानों के लिए जो उनपे दिलोजान छिड़कते हैं | हर शब्द से कुछ लम्हे चुरा कर गुलज़ार ने कुछ ऐसा लिख डाला था जिसकी गहराईयों को नापना बिलकुल आसान न था जैसे उनकी यही पंक्तियाँ ले लो |
- हाथ छूटें भी तो रिश्ते नहीं छोड़ा करते
वक़्त की शाख़ से लम्हे नहीं तोड़ा करते
अपनी शायरी और गीतों में शब्दों के साथ संवेदनाओं का कितना अद्भुत प्रयोग किया है गुलजार साहब ने. कितनी लुनाई है, उनमें. एक से बढ़कर एक मिसरे, एक से बढ़कर एक गीत, क्या खूब गज़ल, क्या उम्दा शायरी, या फिर यू कह लिया जाएँ कि उनकी जितनी तारीफ़ की जाये कम होगी |
- वक़्त रहता नहीं कहीं टिक कर
आदत इस की भी आदमी सी है
- तुम्हारी ख़ुश्क सी आँखें भली नहीं लगतीं
वो सारी चीज़ें जो तुम को रुलाएँ, भेजी हैं
- जिस की आँखों में कटी थीं सदियाँ
उस ने सदियों की जुदाई दी है
18 अगस्त, 1934 को पंजाब स्थित झेलम जिले के एक छोटे से कस्बे दीना के सिख परिवार में उनका जन्म हुआ और अब यह हिस्सा अब पाकिस्तान में है |
ऐसा कहा जाता है कि गुलजार साहब को स्कूल के दिनों से ही शेरो-शायरी और संगीत शौक था कॉलेज के दिनों में उन्होंने अपने शौक को हवा दी और बंटवारा हुआ तो परिवार अमृतसर आ गया, और बाद में गुलज़ार साहब ने मुंबई को अपना घर बना लिया|
गुलज़ार ने अपने सिनेमा करियर की शुरुआत 1961 में विमल राय के सहायक के रूप में की और बाद में उन्होंने ऋषिकेश मुखर्जी और हेमंत कुमार के सहायक के तौर पर भी काम किया.
गीतकार के रूप में गुलज़ार ने पहला गाना 'मोरा गोरा अंग लेई ले' साल 1963 में प्रदर्शित विमल राय की फिल्म 'बंदिनी' के लिए लिखा. क्या हिट था वह गाना..उस जमाने से लेकर आज तक. उन्होंने जो भी किया, इतिहास बना दिया. साल 1971 में फिल्म 'मेरे अपने' के जरिये निर्देशन के क्षेत्र में भी कदम रखा.
"साहित्य और सिनेमा दोनों में ही वो उम्दा हैं. उनके लिखे का फ़लक तो देखिए- 'हमने देखी है उन आंखों की महकती ख़ुशबू, हाथ से छूकर इसे रिश्तों के इल्ज़ाम न दो' से लेकर 'दिल तो बच्चा है जी' तक बखूबी अपने शब्दों को बिखेरा |
आज गुलज़ार साहब के जन्मदिन पर पढ़िए उनकी पांच चुनिंदा रचनाएंः
1.
रिश्ते बस रिश्ते होते हैं
रिश्ते बस रिश्ते होते हैं
कुछ इक पल के
कुछ दो पल के
कुछ परों से हल्के होते हैं
बरसों के तले चलते-चलते
भारी-भरकम हो जाते हैं
कुछ भारी-भरकम बर्फ़ के-से
बरसों के तले गलते-गलते
हलके-फुलके हो जाते हैं
नाम होते हैं रिश्तों के
कुछ रिश्ते नाम के होते हैं
रिश्ता वह अगर मर जाये भी
बस नाम से जीना होता है
बस नाम से जीना होता है
रिश्ते बस रिश्ते होते हैं
2.
माँ उपले थापा करती थी
छोटे थे, माँ उपले थापा करती थी
हम उपलों पर शक्लें गूँथा करते थे
आँख लगाकर - कान बनाकर
नाक सजाकर -
पगड़ी वाला, टोपी वाला
मेरा उपला -
तेरा उपला -
अपने-अपने जाने-पहचाने नामों से
उपले थापा करते थे
हँसता-खेलता सूरज रोज़ सवेरे आकर
गोबर के उपलों पे खेला करता था
रात को आँगन में जब चूल्हा जलता था
हम सारे चूल्हा घेर के बैठे रहते थे
किस उपले की बारी आयी
किसका उपला राख हुआ
वो पंडित था -
इक मुन्ना था -
इक दशरथ था -
बरसों बाद - मैं
श्मशान में बैठा सोच रहा हूँ
आज की रात इस वक्त के जलते चूल्हे में
इक दोस्त का उपला और गया!
3.
एक नदी की बात सुनी...
एक नदी की बात सुनी...
इक शायर से पूछ रही थी
रोज़ किनारे दोनों हाथ पकड़ कर मेरे
सीधी राह चलाते हैं
रोज़ ही तो मैं
नाव भर कर, पीठ पे लेकर
कितने लोग हैं पार उतार कर आती हूँ ।
रोज़ मेरे सीने पे लहरें
नाबालिग़ बच्चों के जैसे
कुछ-कुछ लिखी रहती हैं।
क्या ऐसा हो सकता है जब
कुछ भी न हो
कुछ भी नहीं...
और मैं अपनी तह से पीठ लगा के इक शब रुकी रहूँ
बस ठहरी रहूँ
और कुछ भी न हो !
जैसे कविता कह लेने के बाद पड़ी रह जाती है,
मैं पड़ी रहूँ...!
4.
नज़्म उलझी हुई है सीने में
नज़्म उलझी हुई है सीने में
मिसरे अटके हुए हैं होठों पर
उड़ते-फिरते हैं तितलियों की तरह
लफ़्ज़ काग़ज़ पे बैठते ही नहीं
कब से बैठा हुआ हूँ मैं जानम
सादे काग़ज़ पे लिखके नाम तेरा
बस तेरा नाम ही मुकम्मल है
इससे बेहतर भी नज़्म क्या होगी
5.
प्यार वो बीज है
प्यार कभी इकतरफ़ा होता है; न होगा
दो रूहों के मिलन की जुड़वां पैदाईश है ये
प्यार अकेला नहीं जी सकता
जीता है तो दो लोगों में
मरता है तो दो मरते हैं
प्यार इक बहता दरिया है
झील नहीं कि जिसको किनारे बाँध के बैठे रहते हैं
सागर भी नहीं कि जिसका किनारा नहीं होता
बस दरिया है और बह जाता है.
दरिया जैसे चढ़ जाता है ढल जाता है
चढ़ना ढलना प्यार में वो सब होता है
पानी की आदत है उपर से नीचे की जानिब बहना
नीचे से फिर भाग के सूरत उपर उठना
बादल बन आकाश में बहना
कांपने लगता है जब तेज़ हवाएँ छेड़े
बूँद-बूँद बरस जाता है.
प्यार एक ज़िस्म के साज़ पर बजती गूँज नहीं है
न मन्दिर की आरती है न पूजा है
प्यार नफा है न लालच है
न कोई लाभ न हानि कोई
प्यार हेलान हैं न एहसान है.
न कोई जंग की जीत है ये
न ये हुनर है न ये इनाम है
न रिवाज कोई न रीत है ये
ये रहम नहीं ये दान नहीं
न बीज नहीं कोई जो बेच सकें.
खुशबू है मगर ये खुशबू की पहचान नहीं
दर्द, दिलासे, शक़, विश्वास, जुनूं,
और होशो हवास के इक अहसास के कोख से पैदा हुआ
इक रिश्ता है ये
यह सम्बन्ध है दुनियारों का,
दुरमाओं का, पहचानों का
पैदा होता है, बढ़ता है ये, बूढा होता नहीं
मिटटी में पले इक दर्द की ठंढी धूप तले
जड़ और तल की एक फसल
कटती है मगर ये फटती नहीं.
मट्टी और पानी और हवा कुछ रौशनी
और तारीकी को छोड़
जब बीज की आँख में झांकते हैं
तब पौधा गर्दन ऊँची करके
मुंह नाक नज़र दिखलाता है.
पौधे के पत्ते-पत्ते पर
कुछ प्रश्न भी है कुछ उत्तर भी
किस मिट्टी की कोख़ से हो तुम
किस मौसम ने पाला पोसा
औ' सूरज का छिड़काव किया.
किस सिम्त गयी साखें उसकी
कुछ पत्तों के चेहरे उपर हैं
आकाश के ज़ानिब तकते हैं
कुछ लटके हुए ग़मगीन मगर
शाखों के रगों से बहते हुए
पानी से जुड़े मट्टी के तले
एक बीज से आकर पूछते हैं.
हम तुम तो नहीं
पर पूछना है तुम हमसे हो या हम तुमसे
प्यार अगर वो बीज है तो
इक प्रश्न भी है इक उत्तर भी